जब पतझड़ सबकुछ लूटता है, हरियाली भय खा जाती है,
तब उर को फाड़कर धरती माँ, अपना सर्वस्व लुटाती है ।
इतना अर्पण व त्याग कहाँ कोई भी नर कर पाता है?
जब नौ महीने गर्भ में रख, माँ नवजीवन उपटाती है ।
ये माँ ही है जो हर पल , नवजीवन सृजन चलाती है,
बेटी है उसका प्रथम रूप, तुम्हे मार के लाज न आती है।
हे पुरुष तेरा अस्तित्व है क्या? हे मनुज तेरा कृतित्व है क्या?
उस माँ के आँचल में झांको , वह लघु से वटवृक्ष बनाती है।
अस्तित्व विहीन न हो जाओ , इसलिए ध्यान इतना रखना ,
जो माँ के हर रूप को पूजते हैं , दुनिया उसके यश गाती है ।
रत्नेश त्रिपाठी