बुधवार, 30 दिसंबर 2009
इसे पढ़े जरुर? क्योंकि मुझे अपने सवालों का जबाब चाहिए!
जहाँ तक मै जानता हूँ हम सभी इस देश से प्यार करते हैं, इससे प्यार करने का तर्क चाहे जो भी हो. खास करके इस ब्लाग कि दुनिया में रोजमर्रा हो रहे मेरे अनुभवों से भी मुझे यह स्पष्ट होता है कि हम आपस में चाहे कितनी ही बहस करें किन्तु देश पर मर मिटने वाले क्रांतिकारियों के नाम पर एकजुट दिखाई देते हैं.
हमारी सोच हर विषय पा खोजपरक होती है, अब बात असली मुद्दे की, कि क्या हमें यह अंग्रेजों का नववर्ष मनाना चाहिए?
मै किसी भी प्रकार का विरोध न करते हुए इस अंग्रेजों के नववर्ष को मनाने का कारण जाना चाहता हूँ! हम आधुनिक हो चुके लोग क्या यह नहीं जानते कि अमेरिका जैसा आधुनिक देश ने आजाद होने के बाद उस हर प्रतीक को मिटा के रख दिया जिसमे उसे गुलामी का प्रतीक नजर आया, क्या हम अमेरिका से अधिक (वर्त्तमान में) आधुनिक हैं.
* क्या हम ये नहीं जानते कि इसी अंग्रेजी विचारों और दासता से लड़ते-लड़ते हमारे देश के नौजवान से लेकर सभी उम्र के लोगों ने जान दी,
* क्या हम उनकी पुन्यतिथियाँ ही मनाने के लिए शेष हैं?
* इनको याद करते हुए हम लम्बे चौड़े भाषण झाड़ देते हैं, क्या जब हम इस दासता के प्रतीक को पैसे व शराब में डुबोकर मानते होंगे तो हमारी ख़ुशी के लिए मर मिटने वाली आत्माएं प्रशन्न होती होंगी?
* क्या हम पढ़े लिखे स्वतन्त्र लोग अपने नववर्ष को नहीं जानते जिसपर सारी प्रकृति टिकी है, और हम अपने सभी काम उसी के अनुसार करते हैं?
* क्या हम अपने भारतीय नव वर्ष को भी ऐसे ही मनाते हैं?
मै कोई बीता हुआ कल या आज के ज़माने कि भाषा में दकियानूसी नहीं हूँ, मै इस भारत का नौजवान हूँ और मुझे गर्व है कि मै उन महात्माओं, पुण्य आत्माओं का वंशज हूँ जिन्होंने मरना स्वीकार किया किन्तु दासता की किसी भी वस्तु को गले नहीं लगाया.
मुझे गर्व है क्या आपको है ?
रत्नेश त्रिपाठी
सोमवार, 28 दिसंबर 2009
परतंत्रता का प्रतीक, न्यू इयर
एक बार फिर अधिकांश भारतवासी, हमारी सरकार, हमारा टेलीविजन नववर्ष का स्वागत करने की तैयारी कर रहे हैं। बड़े-बड़े होटलों में हजारों रुपये प्रति व्यक्ति खर्च करके देश का कुलीन वर्ग सीटें रिजर्व करा रहा है। नववर्ष पर करोड़ों ग्रीटिंग कार्ड भेजे जा रहे हैं। तथाकथित सभ्य समाज जाम से जाम टकरा-खनका कर मदहोशी की हालत में नववर्ष की शुभकामनाएं देगा। आम आदमी भी पीछे नहीं रहेगा। आधी रात तक टीवी के सामने बैठ कर मध्य रात्रि के अंधेरे में ही नया दिन मनाएगा और कुछ मनचले सड़कों पर पटाखे छोड़कर, नशे में धुत होकर घर के दरवाजे खटखटाएंगे। आजादी के बाद हमने परतंत्रता के अनेक प्रतीक चिह्न मिटाए, विदेशियों के बुत हटाए, सड़कों के नामों का भारतीयकरण किया, पर संवत् और राष्ट्रीय कैलेंडर के विषय में हम सुविधावादी हो गए, हमें विस्मृति रोग ने जकड़ लिया। इसके लिए यह तर्क दिया जा सकता है कि अब जब संसार के अधिकतर देशों ने समान कालगणना के लिए ईसवी सन स्वीकार कर लिया है तो दुनिया के साथ चलने के लिए हमें भी इसका प्रयोग करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि हमने सुविधा को आधार बनाकर राष्ट्रीय गौरव से समझौता कर लिया है और यह भी भुला दिया कि काम चलाने और जश्न मनाने में बहुत अंतर है। दो हजार वर्ष पहले शकों ने सौराष्ट्र और पंजाब को रौंदते हुए अवंती पर आक्रमण किया तथा विजय प्राप्त की। विक्रमादित्य ने राष्ट्रीय शक्तियों को एक सूत्र में पिरोया और शक्तिशाली मोर्चा खड़ा करके ईसा पूर्व 57 में शकों पर भीषण आक्रमण कर विजय प्राप्त की। थोड़े समय में ही इन्होंने कोंकण, सौराष्ट्र, गुजरात और सिंध भाग के प्रदेशों को भी शकों से मुक्त करवा लिया। वीर विक्रमादित्य ने शकों को उनके गढ़ अरब में भी करारी मात दी। अरब विजय के उपलक्ष्य में मक्का में महाकाल भगवान शिव के मंदिर का निर्माण करवाया। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक शायर उर ओकुल मंें किया है-वे लोग धन्य हैं जो सम्राट विक्रमादित्य के समय उत्पन्न हुए। वे सज्जन, उदार एवं कर्तव्यपरायण शासक थे। इसी सम्राट विक्रमादित्य के नाम पर भारत में विक्रमी संवत प्रचलित हुआ। सम्राट पृथ्वीराज के शासनकाल तक इसी संवत के अनुसार कार्य चला। इसके बाद भारत में मुगलों के शासनकाल के दौरान सरकारी क्षेत्र में हिजरी सन चलता रहा। इसे भाग्य की विडंबना कहें अथवा स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं का अनुचित दृष्टिकोण कि सरकार ने शक संवत् को स्वीकार कर लिया, लेकिन शकों को परास्त करने वाले सम्राट विक्रमादित्य के नाम से प्रचलित संवत् को कहीं स्थान न दिया। यह सच है कि भारतवासी अपने महापुरुषों के जन्मदिन एवं त्यौहार विक्रमी संवत् की तिथियों के अनुसार ही मनाते हैं। जन्मकुंडली तथा पंचांग भी इसी आधार पर बनते हैं। उदाहरण के लिए रक्षाबंधन श्रावणी पूर्णिमा को और सर्दी का आगमन शरद पूर्णिमा को मनाते हैं। गुरुनानक देव का जन्मदिवस कार्तिक पूर्णिमा, श्रीकृष्ण का भादों की अष्टमी, श्रीरामचंद्र का चैत्र की नवमी को ही मनाया जाता है। इसी प्रकार बुद्ध पूर्णिमा, पौष सप्तमी और दीपावली के लिए कार्तिक अमावस्या सभी जानते हैं, किंतु न जाने क्यों अपनी तथा अपने बच्चों की जन्मतिथि ईसवी सन के अनुसार चलाते हैं। 31 दिसंबर की आधी रात को नववर्ष के नाम पर नाचने वाले आम जन को देखकर तो कुछ तर्क किया जा सकता है, पर भारत सरकार को क्या कहा जाए जिसका दूरदर्शन भी उसी रंग में रंगा श्लील-अश्लील कार्यक्रम प्रस्तुत करने की होड़ में लगा रहता है और राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री पूरे राष्ट्र को नववर्ष की बधाई देते हैं। भारतीय सांस्कृतिक जीवन का विक्रमी संवत् से गहरा नाता है। इस दिन लोग पूजापाठ करते हैं और तीर्थ स्थानों पर जाते हैं। लोग पवित्र नदियों में स्नान करते हैं। लोग इस दिन इन तामसी पदार्थाे से दूर रहते हैं, पर विदेशी संस्कृति के प्रतीक और गुलामी की देन विदेशी नववर्ष के आगमन से घंटों पूर्व ही मांस मदिरा का प्रयोग, श्लील-अश्लील कार्यक्रमों का रसपान तथा अन्य बहुत कुछ ऐसा प्रारंभ हो जाता है जिससे अपने देश की संस्कृति का रिश्ता नहीं है। विक्रमी संवत के स्मरण मात्र से ही विक्रमादित्य और उनके विजय अभियान की याद ताजा होती है, भारतीयों का मस्तक गर्व से ऊंचा होता है, जबकि ईसवी सन के साथ ही गुलामी द्वारा दिए गए अनेक जख्म हरे होने लगते हैं। मोरारजी देसाई को जब किसी ने पहली जनवरी को नववर्ष की बधाई दी तो उन्होंने उत्तर दिया था- किस बात की बधाई? मेरे देश और देश के सम्मान का तो इस नववर्ष से कोई संबंध नहीं। यही हम लोगों को भी समझना होगा। (लेखिका पंजाब सरकार में मंत्री हैं)
अंग्रेजियत नव वर्ष पर एक लेख मै भी लिख रहा हूँ जिसे ३० को पोस्ट करूँगा किन्तु उसके पहले इस लेख का हाल जानना है कि हमारे अन्दर कितना भारत जीवित है.
रत्नेश त्रिपाठी
रविवार, 27 दिसंबर 2009
जाड़े कि रातें
कि याद आती हैं वो जाड़े कि रातें
कभी रजाई तो कभी माँ का आँचल
दादी कि कहानी वाली जाड़े कि रातें
कभी सांप तो कभी भूतों वाली बातें
बड़ी डरावनी भी थी जाड़े कि रातें
जलाकर अलाव बैठती थी टोली अपनी
नयी बदमाशियां सिखाती वो जाड़े कि रातें
पढाई छोड़ रजाई कि आगोश में आते
कि कितनी गर्म होती थी जाड़े की रातें
कभी माँ कभी दादी कभी कभी दीदी कि गोंद
अब कहाँ सुकून देती हैं जाड़े कि रातें
आज जीवन कि आपाधापी में हम कुढ़ते
अब तो सोने नहीं देती जाड़े कि रातें
रत्नेश त्रिपाठी
गुरुवार, 24 दिसंबर 2009
अम्मा !
बहुत सा सवाल लिए
और उत्तर केवल एक, केवल एक?
फिर वह कहानी क्या है? और
उन बहुत सारे प्रश्नों का एक उत्तर क्या है ?
कहानी है परिवार की, हमारे विचार की
आज के समाज के व्यवहार की
कोई किसी से खुश नहीं है
पति पत्नी से नाखुश, स्त्री पुरुष से नाखुश
बेटा बाप से, भाई भाई से, हर रिश्ता दूसरे से
समस्या! सिर्फ अपने बारे में सोचना
नए युग के अनुसार स्वयं के
अधिकारों पर स्वयं की जीवन इच्छा
सब अपने को सर्वश्रेष्ठ मानकर
दूसरों के प्रति लापरवाह हैं !
कारण कुछ भी हो
अहम् ब्रह्मास्मि!
सभी रिश्ते एक दूसरे के अधिकारों की होड़ में
अगड़ पिछड़ रहे हैं, सब अपने
किये की किस्त मांग रहे हैं ,
हम आधुनिकता में सबकुछ भूले बैठे
जीवन को अर्थ की कसौटी पर
व्यर्थ में तौलते जा रहे हैं,
और फिर आधुनिक युग की
अनमोल देन अधिकार व स्वयं इच्छा
का आवरण ओढ़े जा रहे हैं
ये है जीवन की कहानी , अब !
इन सबका एक उत्तर
वह कौन है? जो अधिकार नहीं मांगती
वह कौन है? जो इन्वेस्ट का फायदा नहीं मांगती
वह कौन है? जो स्वयं की इच्छा
व स्वयं ब्रह्मास्मि होते हुए
अहम् ब्रह्मास्मि नहीं कहती
वह कौन है? जो पूरी कहानी लिखती है
किन्तु पारितोषिक नहीं मांगती
वह कौन है जो सृजन की स्थली है ..
लेकिन खुद के लिए स्थान नहीं मांगती
इस कहानी और इन प्रश्नों का बस
एक जबाब है माँ -
माँ और बस माँ
रत्नेश त्रिपाठी
सोमवार, 21 दिसंबर 2009
बेहयी संसद को ढोती नासमझ जनता!
चाहे पूरा देश इससे तबाह हो लेकिन संसद महगाई से अछूती है, महगाई क्या होती है हमारे सांसद नहीं जानते, आइये इस सच्चाई की तह में जाएँ - आज २१-१२-२००९ के दैनिक जागरण का मेन पृष्ट की एक खबर " संसद की कैंटीन से दूर है महगाई" और इसमे दिए हुए आकडे हमारीसड चुकी व्यवस्था को समझाने के लिए पर्याप्त है, आज जब आम जनमानस इस भीषण महंगाई से जूझ रहा है जरा हम देखें हमारे देश के कर्णधार सांसदों की थाली की कीमत क्या है, आकडे कुछ इस प्रकार हैं-
दही चावल 11 रूपया
एक कटोरी दाल 1.50 ''
वेज पुलाव 8 ''
चिकन बिरयानी 34 ''
फिश कड़ी, चावल 13 ''
राजमा चावल 7 ''
चिकन कड़ी 22.50 ''
चिकन मशाला 24.50 ''
बटर चिकन 27 ''
चाय 1 ''
सूप 5.50 ''
खीर 5.50 ''
डोसा 4 ''
फ्रूट केक 9.50 ''
फ्रूट सलाद 7 ''
है न हमारी देश की संसद महगाई से दूर,
अब सोचने वाली बात ये है कि सबकुछ हमारा तो फिर यह खाना केवल वो सांसद कि क्यों खाए जो हमारी ही बदौलत वहाँ पहुचे हैं, ये तो रही सोचने वाली बात,
अब करने वाली बात ये है कि पूरी देश कि जनता इस सस्ते भोजन को क्यों न करे. इस नारे साथ हम भी आगे आयें हम क्यों महंगा खाएं
आओ चलो हम भी संसद जाएँ,
जय हो ..............
रत्नेश त्रिपाठी
शनिवार, 19 दिसंबर 2009
काकोरी कांड बलिदान दिवस
१९ दिसंबर, काकोरी कांड के नायक पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां और ठाकुर रोशन सिंह जैसे वीरों के 82 वें बलिदान दिवस पर उनको हमारा शत-शत नमन, आज पूरे राष्ट्र को इन वीरों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए जिनके प्रयासों से हमें आजादी मिली. वास्तव में हमारे सच्चे नेता, हमारे सच्चे नायक यही हैं जिन्होंने अपने जीवन से अधिक अपने राष्ट्र कि स्वतंत्रता को प्यार किया और अपने जीवन का बलिदान किया.
राष्ट्र के प्रति हम अपने कर्तव्यों को समझें और इन वीरो के बलिदान को व्यर्थ न जाने दें. आईये आज हम सब मिलकर यह प्राण करें कि ---हम सुधरेंगे जग सुधरेगा,
और अंत में वही पंक्तियाँ जो इन वीरों के लिए गयी जाती हैं,
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा
वन्दे मातरम
रत्नेश त्रिपाठी
रविवार, 13 दिसंबर 2009
सपने की हकीकत
क्यों दिखतें हैं सपने?
क्या सपने हकीकत कि परछाई हैं
या परछाईयों कि हकीकत
जिनका चोला ओढ़े हम
सपने देखते हैं, और वह
सपने ही रह जाते हैं ,
नीद टूटते ही सब कुछ खत्म
सिर्फ हकीकत और फिर भविष्य के सपने
सपने तब खतरनाक होते हैं
जब जागते हुए देखे जाते हैं
सोते हुए सपने जगने के बाद
टूट जाने पर आराम देते हैं
पर जागते सपने अक्सर
हमें तोड़ देते हैं,
फिर वही निरुत्तर प्रश्न
क्या होते हैं सपने?
फिर वही जबाब
सपने तो सपने होते हैं
रत्नेश त्रिपाठी
बुधवार, 9 दिसंबर 2009
इतनी दूर तक जगने वाले
सोने कि तू बात न कर
जीवन तो एक दरिया है पर
डूबने कि तू बात न कर
माना कि गम के बादल हैं
मज़बूरी है बरस रही
एक-एक बूंद कि खातिर
सीप जीवन कि तरस रही
बस तू पर्वत सा बन जा
यूँ बहने कि बात न कर . इतनी दूर.......
सुबह तो फिर भी आती है
पर तू सुबह से पहले कि सोच
बन करके मोती तू चमक
तू सुबह का इंतजार न कर
इतनी दूर तक जगने वाले
सोने कि तू बात न कर
रत्नेश त्रिपाठी
बुधवार, 18 नवंबर 2009
मै चाहता हूँ!
लेकिन कोई तो हो जो नग्मे निगार हो.
टूटते पत्तों से भी जी जाते हैं कितने ,
बस आस इतनी कि आने वाली बहार हो.
उसकी बात, उसका पता हो न हो,
लेकिन वो है! बस इतना ही ऐतबार हो.
प्यार कि बात पे नफ़रत उगल देते हैं लोग
लेकिन कोई नहीं है जिसको न प्यार हो.
मै चाहता हूँ प्यार से जोड़ना हर-एक को,
तोड़ नफरतों को चल पड़े ऐसी बयार हो.
रत्नेश त्रिपाठी
गुरुवार, 12 नवंबर 2009
जिद!
जीवन महा संग्राम है
तिल-तिल मिटूंगा
पर दया कि भीख मै लूँगा नहीं,
वरदान मागूँगा नहीं-वरदान मागूँगा नहीं.
स्मृति सुखंद प्रहरों के लिए
अपने खंडहरों के लिए
यह जान लो मै विश्व की
संपत्ति चाहूँगा नहीं
वरदान मागूँगा नहीं-वरदान मागूँगा नहीं
क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मै
संघर्ष पथ पर जो मिले
यह भी सही वह भी सही
वरदान मागूँगा नहीं-वरदान मागूँगा नहीं
लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने ह्रदय की वेदना मै
व्यर्थ त्यागूँगा नहीं
वरदान मागूँगा नहीं-वरदान मागूँगा नहीं
चाहे ह्रदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्त्तव्य पथ से
किन्तु भागूँगा नहीं
वरदान मागूँगा नहीं-वरदान मागूँगा नहीं
आज जब मधु कोडा जैसे नेताओं की निंदा हम करते हैं तो कही न कहीं हम अपनी भी निंदा करते है, क्योकि आज जो उसने या उसके जैसे लोगों ने किया है तो उसके लिए हम भी कम जिम्मेदार नहीं हैं, और केवल निंदा करके हम अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकते. ये जो ऊपर शिव मंगल सिंह "सुमन" की पक्तियां लिखी हैं अगर हम इसे अपनाने की कोशिश करें तो शायद ...............
रत्नेश त्रिपाठी
मंगलवार, 10 नवंबर 2009
खूनी हस्ताक्षर !
जिसमे उबाल का नाम नहीं
वह खून कहो किस मतलब का
aa सके देश के काम नहीं
वह खून कहो किस मतलब का
जिसमे जीवन न खानी है
जो परवश होकर बहता है
वह खून नहीं वो पानी है
उस दिन लोगों ने सही-सही
खून कि कीमत पहचानी थी
जिस दिन सुभाष ने वर्मा में
मांगी उनसे कुर्बानी थी
बोल स्वतंत्रता की खातिर
बलिदान तुम्हे करना होगा
तुम बहुत जी चुके हो जग में
लेकिन आगे मरना होगा
आजादी के चरणों में जो
जयमाल चढाई जायेगी
वह सुनो, तुम्हारे शीशों
फूलों से गूंथी जायेगी
आजादी का संग्राम कहीं
पैसे पर खेला जाता है
यह शीश कटाने का सौदा
नंगे सर झेला जाता है
आजादी का इतिहास कहीं
काली स्याही लिख पाती है
इसको लिखने के लिए
खून की नदी बहाई जाती है
यूँ कहते-कहते वक्ता की
आँखों में खून उतर आया
मुख रक्त वर्ण हो दमक उठा
दमकी उसकी रक्तिम काया
आजानु बहु ऊँची करके
वे बोले "रक्त मुझे देना"
इसके बदले में भारत की
आजादी तुम मुझसे लेना
हो गयी सभा में उथल-पुथल
सीने में दिल न समाते थे
स्वर इन्कलाब के नारों के
कोसों तक छाये जाते थे
हम देंगे- देंगे खून
शब्द बस यही सुनाई देते थे
रण में जाने को युवक खड़े
तैयार दिखाई देते थे
बोले सुभाष "इस तरह नहीं"
बातों से मतलब सस्ता है
लो यह कागज है कौन यहाँ
आकर हस्ताक्षर करता है
इसको भरने वाले जन को
सर्वश्व समर्पण करना है
अपना तन-मन-धन-जीवन
माता को अर्पण करना है
पर यह साधारण पत्र नहीं
आजादी का परवाना है
इसपर तुमको अपने तन का
कुछ उज्जवल रक्त गिराना है
वह आगे आये जिसके तन में
भारतीय खून बहता हो
वह आगे आये जो अपने को
हिन्दुस्तानी कहता हो
< वह आगे आये जो इसपर
खूनी हस्ताक्षर देता हो
मै कफ़न बढ़ाता हूँ आये
जो इसको हँसकर लेता है
सारी जानता हुँकार उठी
हम आते हैं "हम आते हैं"
माता के चरणों में यह लो
हम अपना रक्त चढाते हैं
साहस से बढे युवक उस दिन
देखा, बढ़ते ही आते थे
चाकूं- छुरी, कटारियों से
वे अपना रक्त चढाते थे
फिर उसी रक्त की स्याही में
वे अपनी कलम डुबोते थे
आजादी के परवाने पर
हस्ताक्षर करते जाते थे
उस दिन तारों ने देखा
हिन्दुस्तानी विश्वास नया
जब लिखा महारणवीरों ने
खून से अपना इतिहास नया
आज जब इस देश में भाषा, प्रान्त, धर्म व जाति के नाम पर विद्वेष की राजनीति की जा रही है और इसमे आम जानता भी कहीं न कहीं शामिल हो रही है तो यैसे में गोपाल प्रसाद व्यास की ये पंक्तियाँ बहुत याद आती हैं!
रत्नेश त्रिपाठी
शुक्रवार, 6 नवंबर 2009
याद आता है!
रोज बागीचे में जाने का बहाना,
प्राइमरी स्कुल में मास्टर की छड़ी
रोते बिलखते माँ के आँचल में छुप जाना
याद है अब भी वो जूठे टिकोरे
मीठा कहके औरों को जूठा खिलाना
याद है तालाब से सीपी पकड़ना
और फिर पत्थर पे उसको रगड़ना
याद है वो प्याज और मिर्चे का मिलन
सीपियों से छीलकर टिकोरे संग खाना
हम नहीं भूले वो आम के पत्ते
तोड़कर नाचती हुई पंखी बनाना
हम नहीं भूले वो जाड़े की रातें
माँ का गोंदी में उठाकर खाना खिलाना
याद है इतना की भूलते ही नहीं
काश फिर मिल जाये वो बचपन सुहाना
रत्नेश त्रिपाठी
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
नवरात्री की शुभकामनाएं
इसी कामना के साथ जय माता दी
रत्नेश त्रिपाठी
शुक्रवार, 11 सितंबर 2009
वे जो अपने हैं !
रोते-बिलखते ये अपने नहीं देखे जाते ,
महँगी गाड़ीयों के लिए रोते बच्चे तो देखे जाते हैं,
विना रोटी के सोने वाले बच्चे नहीं देखे जाते,
जिनसे भीख मांगकर बड़े बनते है नेता,
उनके ठाट-बाट इन आँखों से देखे नहीं जाते,
यही उम्मीद बांधती है हर बार गरीबी,
उनकी टूटती उम्मीद के कमर नहीं देखे जाते.
कुछ लोग अपने बैनर भी लेकर घूमते हैं,
फोटो भी खिचाते हैं गरीबी से खेलते हैं,
पीछे है छुपा क्या हम समझ नहीं पाते,
बस करो की ये दृश्य अब देखे नहीं जाते,
उठाकर ये कलम हमने तो ये लिख दिया,
न जाने हमने भी क्या-क्या लिख दिया
बदलेंगे ये हालत हम समझ नहीं पाते
रोते बिलखते ये अपने नहीं देखे जाते
रत्नेश त्रिपाठी
रविवार, 23 अगस्त 2009
मै और तुम
रात यादों की झुरमुट से सपने में तुझे देखा
एक हवा की सरसराहट ने
तभी परदे को उड़ाया
उसके छुअन में मुझे तेरा आभाष हुआ
लेकिन तभी सूरज की किरणों ने
मुझे ख्वाब से हकीकत में ला पटका
मैंने फिर कोशिश की तुम्हे जागते हुए
ढूंढ़ने की इधर-उधर, हर कही,..........
आज भी वही सड़क चहल-पहल में मशगूल है
आज भी गाडियां धुवाँ उडाती वैसे ही चली जातीं हैं
आज भी मौसम वैसे ही बदलता है
सबकी अपनी-अपनी महक फिंजा में समाई है
सिवाय एक तेरे, सबकुछ वैसा ही है
सिर्फ उस घोंसले के सिवा
जिसे टूट जाने पर
चिडिया दूसरे डाल पर
बिना शिकायत के फिर उतनी ही मेहनत से
दूसरा घोंसला बनाती है, इसी उम्मीद में कि
शायद इस बार कोई अनहोनी न हो
मै भी उसी तरह तुम्हे दूसरों में ढूंढ़ता हूँ
लेकिन कोई तुझसा नहीं मिलता
जाने क्यूँ तेरी महक मुझे दूसरों से दूर कर देती है
..............तब मै थक हार कर वापस उसी बिस्तर पर
लेट जाता हूँ,
यही आशा लिए कि तुम फिर मुझे
ख्वाब में मिलोगी और मै तुम्हे फिर ख्वाब
से निकलकर हकीकत में पाने कि कोशिश करता रहूँगा
अनवरत....अविराम .......अनथक ......
रत्नेश त्रिपाठी
शुक्रवार, 21 अगस्त 2009
देश -समस्याएं व राजनेता
इसमे पहला नाम आता है हमारे प्रधानमंत्री जी का ( वे लोग क्षमा करें जो इनको प्यार करते हैं, देश का प्रधानमंत्री चाहे वो कोई भी हो मै उसका सम्मान करता हूँ किन्तु मै प्रजा हूँ इसलिए चुप नहीं रह सकता) वो आजकल इस देश को डराते फिर रहें हैं कि इस देश में आतंकवादी घटनाएँ हो सकती हैं ऐसी पुख्ता सूचना है,( कमाल है इतनी पुख्ता सूचना होने के बाद भी आप कुछ न करके जनता को डराने का ही काम कर रहे है, ) अगर आपका आतंकवाद से लड़ने का यही नजरिया है तो आपको ये चुनाव से पहले जनता को बताना चाहिए था सायद जनता ही अपनी रक्षा के लिए कुछ कर लेती.
दूसरा नाम आता है कांग्रेस के साथ लिव इन रिलेशनसिप रखने वाले माननीय शरद पवार जी का . आज जब पूरा देश कहीं सुखा तो कही बाढ़ की मार झेल रहा है तो आप कह रहे हैकि अनाज की कीमते और बढेंगी और आकडे ये बता रहे हैं की देश में अनाज का भण्डारण पर्याप्त है .
तीसरे हमारे गृह मंत्री जी इस कमरतोड़ महगाई से इस देश को निजात दिलाने की पहल करने के बजाय लोगों को डरा रहे हैं की महगाई तो अभी और बढेगी,
अरे देश के कर्णधारों क्या चुनाव से पहले तुमने यही वादे किये थे या जनता को ये समझाना चाह रहे हो की तुम कुछ नहीं कर सकते भोगविलास के अलावा जो करना है जनता ही करे!
इनके बारे में तो यही कहा जा सकता है कि
बरबाद गुलिस्ता करने को बस एक ही उल्लू काफी था,
हर डाल पे उल्लू बैठें हैं अंजामे गुलिस्तां क्या होगा.
रत्नेश त्रिपाठी
रविवार, 16 अगस्त 2009
गुलामी से आजादी तक.....
अभी तक सब लोग स्वतंत्रता दिवस कि खुशी मना रहे थे इसी कारण मैंने दुखती बात नहीं
लिखी किन्तु अब ख़ुशी के बाद कुछ सोचने का समय है.
अतः मै अपनी रचना के माध्यम से इसको रखना चाहता हूँ ----
कुछ गम थे कुछ शर्मिंदगी थी,
ठहरी-ठहरी सी सबकी जिंदगी थी,
सारे लोग बेडियों में बधे थे जैसे.
ऐसे में कोई तूफान सा आया,
नई चेतना नया ज्वार सा आया,
हम लोग जगे और नया बिहान सा आया,
चारों तरफ खुशियाँ छाई थीं.
नई सुबह में हम अपने आप में खोये थे,
इन्ही खुशियों कि खातिर कितने नौजवान सोये थे,
गमो को भूल हम उनको याद करते थे.
फिर न जाने हमारे बीच क्या हुआ,
हम भूलते गए उन सुबहों को,
जिनमे नई चेतना हममे जागी थी.
नफरतों कि ऐसी हवा चली,
सारे सपने बिखर कर रह गए,
हम उनको क्या याद करते जो सोये थे,
हम तो अपनों को भी भूलते गए,
हर तरफ एक नजारा आज दिखाई देता
कहीं करुण स्वर तो कहीं मातम है रत्नेश,
नहीं वो आज हसीं का स्वर सुनाई देता.
आज हमें जरुरत है ये सोचने की कि हमने इस देश कि लिए क्या किया, न कि ये कि
दूसरो ने इस देश के लिए कुछ नहीं किया।
जय हिंद
रत्नेश त्रिपाठी
शुक्रवार, 14 अगस्त 2009
कृष्ण जन्माष्टमी
एक बार पुनः सभी को कृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं.
शनिवार, 11 जुलाई 2009
वो माँ थी !
नवजीवन हुआ तुम्हारा
तो इसके लिए समर्पित
कौन थी? वो माँ थी
जब पहला आहार मिला
जब पहला प्यार मिला
उसके लिए लालायित
कौन थी? वो माँ थी
जब कदम हुए संतुलित
पहले थे गिरते-पड़ते विचलित
पल-पल जिसने संभाला
वो कौन थी ? वो माँ थी
जब तुमको पिता ने डाटा
जब पैर में चुभा कांटा
आँचल में छिपाकर, जिसने दर्द को बांटा
वो कौन थी ? वो माँ थी
हर सुख में हर दुःख
में जीवन की कठिन राहों पर
गिर-गिरकर उठना सिखाया
वो कौन थी? वो माँ थी
हम नौजवान हो गए आज
हम बुद्धिमान हो गए आज
हमें याद रहा सबकुछ सिवाय जिसके
वो कौन थी ? वो माँ थी
तानो को सहा जिसने
उफ़ तक भी किया, जिसने
जिसने ममता का कर्ज भी न माँगा
वो कौन थी ? वो माँ थी
तुम याद करो खुद को
क्या थे अब क्या बन बैठे
जो बदली नहीं एक तृण भी
वो कौन थी ? वो माँ थी
" सिर्फ व सिर्फ माँ थी "
रत्नेश त्रिपाठी
रविवार, 21 जून 2009
हे पिता
लेकिन कमाल की बात है वे चिल्ड्रेन डे मानते हैं लेकिन आज के ये आधुनिक बेटे जो साल में एक दिन फादर दे मनाने वाले हैं वे उनकी सुधि भी नहीं लेते। वो तो भला हो उस अंग्रेजन का जिसने १९१० में आपने पिता की याद में पहली बार फादर डे मनाया जिसे आज सारी दुनिया मनाती है, हे आधुनिक लोंगो उसने अपने पिता का जन्मदिन फादर डे के रूप में मनाया क्योंकि वे मर चुके थे। तुम उसके पिता के गम में क्यों फादर डे मानते हो, अगर अपने पिता से इतना ही प्यार है तो हर रोज उनकी देखभाल करो उनको अपने साथ रखो तो उनके लिए हर रोज फादर डे होगा।
मै किसी भी त्यौहार का विरोधी नहीं हूँ लेकिन मै उन त्योहारों को नकारता हूँ जो हमारी उज्जवल संस्कृति के खिलाफ हैं, हमारे हर रिश्ते इतने अनमोल है की उनके लिए साल में सिर्फ एक दिन मनाना उन रिस्तो को गाली देने के सामान है। यैसे में माता पिता का रिश्ता तो देव तुल्य रिश्ता है, हम ये कैसे मान सकते हैं की रोज मंदिर में जाकर भगवान की पूजा करें और घर में माँ बाप को साल में एक दिन याद के रूप में मनावें और ये सोचे की भगवान हमसे प्रसन्न होंगे। जिस तरह हम कण कण में व्याप्त भगवान को रोज मन्दिरों में पूजते है ठीक उसी तरह अपने घर में माँ बाप के रूप में मौजूद भगवान की पूजा करें, ये मदर डे व फादर डे उन अंग्रेजों को ही मनाने दें जिनके लिए ये रिश्ते साल में एक दिन का खेल हैं।
रत्नेश त्रिपाठी
शनिवार, 9 मई 2009
हे माँ
दैनिक जागरण जो भारत का अग्रणी समाचार पत्र है उसके दिल्ली संस्करण मे सम्माननीया शिल्पा शूद जी का एक लेख छपा है, मै उनकी विचारों को क्या कहूँ ये उनकी गलती नहीं है. उन्होंने लिखा है कि आपको मम्मी से कितना प्यार है? कितनी खास हैं माँ आप के लिए? मदर्स दे पर तोहफा देकर आप साबित कर सकते हैं कि माँ से बड़ा कोई नहीं,( कमाल है! अब बाजारू तोहफे माँ को माँ साबित करेंगे) उन्होंने आगे लिखा है आखिर माँ ही है जो बच्चों को खुश देखने कि खातिर सारे जतन करती है. ऐसे मे बच्चों का भी यह फर्ज बनता है कि इस तेज रफ्तार जिंदगी मे से एक दिन निकालकर उन्हें दें. शिल्पा जी ने शायद माँ को उन नेताओं कि सड़क पर लगी मूर्ति समझ लिया है जिनपर साल भर कबूतर व कौए गन्दा करते हैं और साल मे एक दिन कोई नेता उन्हें साफ करवाकर नयी माला पहनाता है और उन्हें याद करके अपना फर्ज निभाता है और फिर उसे उसके जीवन पर्यंत चलने वाले हाल पर छोड़ देता है.
क्या इतना उतावलापन किसी भारतीय के लिए माँ के प्रति साल में एक ही दिन रहता है, क्या हम माँ को साल में एक दिन याद रखने वाली मूर्ति समझते हैं कि उसे साफ किया और कुछ नये मालाओं से सजाकर फिर किसी ओट पर रख दिया कि अगले साल फिर उसे मदर डे पर उठाऊंगा और वही काम पूरा करके माँ के कर्ज को अदा कर दूंगा.
हमारी नई दुनिया में जीने वाले आधुनिक भारतीयों ये हमारी परंपरा नही है, क्योकि माँ हमारे सर्वश्व मे निवास करती है वह हमारे जीवन के हर क्षण मे हमारे साथ रहती है, पूरा जीवन हम उसकी सेवा करके भी उसके कर्ज को नही उतार पाते तो साल मे एक दिन याद करके हम क्या कर लेंगे अरे जो लोग अपनी माँ को अपने साथ नहीं रखते या भूल जाते हैं वे लोग मदर डे मनावें. हम तो भारतीय हैं हमारी तो दिन की शुरुआत ही माँ के चरणों से होती है इसीलिए हमारा हर दिन मदर डे होता है.
हमें पश्चिम से ये सीखने की नहीं बल्कि उनको ये सिखाने की जरुरत है कि हम अपने रिश्तों कि मार्केटिंग नहीं करते और न ही उनको साल मे केवल एक दिन मनाते हैं बल्कि हमारे हर रिश्ते हमारे जीवन कि अनमोल कडिया होते हैं जिनकी माला हम हर पल अपने ह्रदय से लगाये रहते हैं.
रविवार, 29 मार्च 2009
माँ की वंदना
१. बुलंदियों का बड़े से बड़ा निशान हुआ,
उठाया गोंद में माँ ने तो आसमान छुआ,
२. जब भी कस्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ कराती हुई ख्वाब में आ जाती है.
३. घर के झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उघडते देखे,
चुपके-चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्मा .
४. बदन से तेरे आती है मुझे यै माँ वही खुशबू,
जो इक पूजा के दीपक में पिघलते घी से आती है.
५. भीड़ भरा चौरस्ता हूँ मै,
घर की एक डगर है माँ.
रहा उम्र भर एक सफ़र में,
जब भी लौटा घर है माँ.
मुझको छोड़ अकेला मेरे,
बच्चे चले गए जब से,
तेरी याद बहुत आती है,
आया तुझे छोड़कर माँ.
ये सभी पंक्तियाँ किसी न किसी ने माँ को याद करते हुए ही लिखी होगी, मतलब इससे नहीं की वो किस जाति या धर्म के हैं! बात ये है की उन सभी ने माँ को इश्वर के रूप में देखा होगा, पद्म भूषण नीरज जी ने माँ के बारे में लिखा है कि,
जिसमे खुद भगवान ने खेले खेल विचित्र,
माँ कि गोंदी से नहीं कोई तीर्थ पवित्र.
शुक्रवार, 27 मार्च 2009
भारतीय नववर्ष २०६६,
बुधवार, 25 फ़रवरी 2009
स्लम कौन, डाग कौन और मिलेनियेर कौन?
क्या इसके पहले भारत में फिल्में नहीं बनी जिसने भारतीय संस्कृति को उजागर नहीं किया, उन्हें अवार्ड क्यों नहीं मिला? क्योंकि यूरोप हमें तीसरी दुनिया ( यह हमारे लिए गाली है) मनाता है यैसे में वह हमारी संस्कृति के अच्छे रूप को कैसे अवार्ड दे सकता है.मेरी यैसी कोई दुर्भावना नहीं है की हमें क्यों आस्कर अवार्ड मिला, बल्कि मैं यही विचार कर रहा हूं कि क्या यह अवार्ड इस फिल्म को मिला है? या कि इसके आड़ में भारत कि गरीबी को सामने लाकर एक गाली दी गयी है.
जब मै (एक आम आदमी) एक आम आदमी के बारे में व इस अवार्ड के बीच तादात्म्य बैठा रहा था तो मुझे अपने देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभाद्यक्ष व सारे सदन का वक्तव्य मुझे अन्दर से झकझोर रहा था. हमारे राष्ट्रपति जी ने कहा कि इस अवार्ड ने पुरे देश का मन बढाया है. पधानमंत्री जी ने भी कहा कि फिल्म कि पूरी टीम ने भारत का सम्मान बढाया है हम सभी को उनपर गर्व है.विश्व समुदाय( यूरोपीय देश) की इस अप्रत्यक्ष गाली रूपी अवार्ड पर हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व पुरे सदन को गर्व है, तो क्या उन्हें भारत की गरीबी पर खुद पर शर्म नहीं आणि चाहिए. क्या उन्हें यह नहीं दिखता की जिस पठकथा पर यह अवार्ड मिला है वह भारत के गरीबी के नंगेपन को उजागर करता है. मुझे लगता है कि इनसे अच्छे वे यूरोपीय है जिसने भारत में आकर यहीं के लोंगो के साथ मिलकर हमारी समृद्धि कि पोल खोल दी. और हम अवार्ड के नामपर अपने ही लोगों कि दुर्दशा पर खुश हो रहें हैं. इससे मुझे एही लगता है कि स्लम हम(आम नागरिक), डॉग हमारे देश के नेता व मिलेनियर वह यूरोपीय है जिसने हमको हमसे ज्यादा सही समझा, और स्लम डॉग मिलेनियर बनाकर हमें ही गाली देकर हमें ही खुश कर दिया.
रविवार, 15 फ़रवरी 2009
यूज एंड थ्रो
आज अगर हम स्थायित्व की बात करें तो हमें अच्छी सोच वाला कहा जायेगा, जबकि अच्छी सोच कहने वाला खुद नहीं जानता की स्थायित्व क्या होता है, चलिए हम इस बात को यैसे समझते हैं की, कभी समय था की हम कलम और दवात का प्रयोग करते थे, जिसमे कम खर्चे में भी स्थायित्व होता था। हम एक ही कलम से सालों लिखते थे और एक दवात स्याही महीनों चलती थी. यैसे में यूज अधिक होता था और थ्रो कम होता था. समय बदला हम आधुनिक हुए (आधुनिकता की एक परिभाषा मेरी दृष्टि में यह भी है की यह अपनी मौत की तरफ भागने के लिए प्रेरित करता है), और कलम दवात की जगह रिफिल वाली बालपेन ने ले लिया उससे और आधुनिक हुए तो जेल पेन आया. आज स्थिति यह है की यह आधुनिकता पैसे को भी बर्बाद कर रही है और यूज की कम थ्रो की पद्धति अधिक विक्सित कर रही है, वर्त्तमान में मनुष्य की भी यही दशा है, वह भी अपने रिश्तों को यूज एंड थ्रो की तरह ही समझता है और अपने को आधुनिक कहता है इतना ही नहीं वह स्थायित्व की बात भी करता है, यैसे में यदि इस आधुनिक विचारधारा की तुलना करें तो स्थायित्व यूज एंड थ्रो के साथ इस आधुनिक युग में संभव नहीं दिखता. मानवीय जीवन में इसके अनेक उदाहरण हमें देखने को मिलते हैं. आज हम प्यार किसी और से करते हैं और शादी किसी और से यहाँ भी यूज एंड थ्रो, हम शादी के बाद अकेले रहना चाहतें है लेकिन समस्या आने पर माँ बाप याद आते हैं फिर उसके बाद अकेले. माँ बाप के साथ भी यूज एंड थ्रो, दूसरी पसंद आने पर पत्नी से तलाक यहाँ भी यूज एंड थ्रो, और जाने कितने उदहारण है. आज कोई भी किसी भी वस्तु को अधिक दिनों तक आपने पास नहीं रखना चाहता क्योंकि वह आधुनिक है और यूज एंड थ्रो पर विस्वास करता है. इसी लिए हमारे देश में भी साल में एक बार सभी को याद करने का त्यौहार मनाया जाने लगा है, मदर डे, फादर डे, सिस्टर डे, वेलेनटाइन डे, ब्रदर डे, फ्रैंडशिप डे, आदि आदि. क्योंकि अब हमारे पास समय नहीं रहा हम आधुनिक हो गए हैं और यूज एंड थ्रो से काम चला रहे हैं.
शनिवार, 31 जनवरी 2009
माँ
जब पतझड़ सबकुछ लूटता है, हरियाली भय खा जाती है,
तब उर को फाड़कर धरती माँ, अपना सर्वस्व लुटाती है ।
इतना अर्पण व त्याग कहाँ कोई भी नर कर पाता है?
जब नौ महीने गर्भ में रख, माँ नवजीवन उपटाती है ।
ये माँ ही है जो हर पल , नवजीवन सृजन चलाती है,
बेटी है उसका प्रथम रूप, तुम्हे मार के लाज न आती है।
हे पुरुष तेरा अस्तित्व है क्या? हे मनुज तेरा कृतित्व है क्या?
उस माँ के आँचल में झांको , वह लघु से वटवृक्ष बनाती है।
अस्तित्व विहीन न हो जाओ , इसलिए ध्यान इतना रखना ,
जो माँ के हर रूप को पूजते हैं , दुनिया उसके यश गाती है ।
रत्नेश त्रिपाठी