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रविवार, 16 अगस्त 2009

गुलामी से आजादी तक.....

अभी तक सब लोग स्वतंत्रता दिवस कि खुशी मना रहे थे इसी कारण मैंने दुखती बात नहीं
लिखी किन्तु अब ख़ुशी के बाद कुछ सोचने का समय है.
अतः मै अपनी रचना के माध्यम से इसको रखना चाहता हूँ ----

कुछ गम थे कुछ शर्मिंदगी थी,
ठहरी-ठहरी सी सबकी जिंदगी थी,
सारे लोग बेडियों में बधे थे जैसे.
ऐसे में कोई तूफान सा आया,
नई चेतना नया ज्वार सा आया,
हम लोग जगे और नया बिहान सा आया,
चारों तरफ खुशियाँ छाई थीं.
नई सुबह में हम अपने आप में खोये थे,
इन्ही खुशियों कि खातिर कितने नौजवान सोये थे,
गमो को भूल हम उनको याद करते थे.
फिर जाने हमारे बीच क्या हुआ,
हम भूलते गए उन सुबहों को,
जिनमे नई चेतना हममे जागी थी.
नफरतों कि ऐसी हवा चली,
सारे सपने बिखर कर रह गए,
हम उनको क्या याद करते जो सोये थे,
हम तो अपनों को भी भूलते गए,
हर तरफ एक नजारा आज दिखाई देता
कहीं करुण स्वर तो कहीं मातम है रत्नेश,
नहीं वो आज हसीं का स्वर सुनाई देता.

आज हमें जरुरत है ये सोचने की कि हमने इस देश कि लिए क्या किया, न कि ये कि
दूसरो ने इस देश के लिए कुछ नहीं किया।
जय हिंद



रत्नेश त्रिपाठी

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