अभी तक सब लोग स्वतंत्रता दिवस कि खुशी मना रहे थे इसी कारण मैंने दुखती बात नहीं
लिखी किन्तु अब ख़ुशी के बाद कुछ सोचने का समय है.
अतः मै अपनी रचना के माध्यम से इसको रखना चाहता हूँ ----
कुछ गम थे कुछ शर्मिंदगी थी,
ठहरी-ठहरी सी सबकी जिंदगी थी,
सारे लोग बेडियों में बधे थे जैसे.
ऐसे में कोई तूफान सा आया,
नई चेतना नया ज्वार सा आया,
हम लोग जगे और नया बिहान सा आया,
चारों तरफ खुशियाँ छाई थीं.
नई सुबह में हम अपने आप में खोये थे,
इन्ही खुशियों कि खातिर कितने नौजवान सोये थे,
गमो को भूल हम उनको याद करते थे.
फिर न जाने हमारे बीच क्या हुआ,
हम भूलते गए उन सुबहों को,
जिनमे नई चेतना हममे जागी थी.
नफरतों कि ऐसी हवा चली,
सारे सपने बिखर कर रह गए,
हम उनको क्या याद करते जो सोये थे,
हम तो अपनों को भी भूलते गए,
हर तरफ एक नजारा आज दिखाई देता
कहीं करुण स्वर तो कहीं मातम है रत्नेश,
नहीं वो आज हसीं का स्वर सुनाई देता.
आज हमें जरुरत है ये सोचने की कि हमने इस देश कि लिए क्या किया, न कि ये कि
दूसरो ने इस देश के लिए कुछ नहीं किया।
जय हिंद
रत्नेश त्रिपाठी
रविवार, 16 अगस्त 2009
गुलामी से आजादी तक.....
शुक्रवार, 14 अगस्त 2009
कृष्ण जन्माष्टमी
सभी ब्लागर वासियों को कृष्ण जन्माष्टमी की ढेर सारी शुभकामनाएं, आज हम सभी मिलकर ये भगवान से प्रार्थना करें कि हमारे द्वारा भी ऐसे अच्छे कार्य हों जिसे दुनिया याद करे और हमारे बनाये उस रास्ते पर चले ताकि हमारे इस मनुष्य जीवन का कुछ अर्थ निकल सके!
एक बार पुनः सभी को कृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं.
एक बार पुनः सभी को कृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं.
शनिवार, 11 जुलाई 2009
वो माँ थी !
जब सृजन हुआ तुम्हारा
नवजीवन हुआ तुम्हारा
तो इसके लिए समर्पित
कौन थी? वो माँ थी
जब पहला आहार मिला
जब पहला प्यार मिला
उसके लिए लालायित
कौन थी? वो माँ थी
जब कदम हुए संतुलित
पहले थे गिरते-पड़ते विचलित
पल-पल जिसने संभाला
वो कौन थी ? वो माँ थी
जब तुमको पिता ने डाटा
जब पैर में चुभा कांटा
आँचल में छिपाकर, जिसने दर्द को बांटा
वो कौन थी ? वो माँ थी
हर सुख में हर दुःख
में जीवन की कठिन राहों पर
गिर-गिरकर उठना सिखाया
वो कौन थी? वो माँ थी
हम नौजवान हो गए आज
हम बुद्धिमान हो गए आज
हमें याद रहा सबकुछ सिवाय जिसके
वो कौन थी ? वो माँ थी
तानो को सहा जिसने
उफ़ तक भी किया, जिसने
जिसने ममता का कर्ज भी न माँगा
वो कौन थी ? वो माँ थी
तुम याद करो खुद को
क्या थे अब क्या बन बैठे
जो बदली नहीं एक तृण भी
वो कौन थी ? वो माँ थी
" सिर्फ व सिर्फ माँ थी "
रत्नेश त्रिपाठी
नवजीवन हुआ तुम्हारा
तो इसके लिए समर्पित
कौन थी? वो माँ थी
जब पहला आहार मिला
जब पहला प्यार मिला
उसके लिए लालायित
कौन थी? वो माँ थी
जब कदम हुए संतुलित
पहले थे गिरते-पड़ते विचलित
पल-पल जिसने संभाला
वो कौन थी ? वो माँ थी
जब तुमको पिता ने डाटा
जब पैर में चुभा कांटा
आँचल में छिपाकर, जिसने दर्द को बांटा
वो कौन थी ? वो माँ थी
हर सुख में हर दुःख
में जीवन की कठिन राहों पर
गिर-गिरकर उठना सिखाया
वो कौन थी? वो माँ थी
हम नौजवान हो गए आज
हम बुद्धिमान हो गए आज
हमें याद रहा सबकुछ सिवाय जिसके
वो कौन थी ? वो माँ थी
तानो को सहा जिसने
उफ़ तक भी किया, जिसने
जिसने ममता का कर्ज भी न माँगा
वो कौन थी ? वो माँ थी
तुम याद करो खुद को
क्या थे अब क्या बन बैठे
जो बदली नहीं एक तृण भी
वो कौन थी ? वो माँ थी
" सिर्फ व सिर्फ माँ थी "
रत्नेश त्रिपाठी
रविवार, 21 जून 2009
हे पिता
एक दिन मै एक विद्धाश्रम में गया, वहां देखा उन पिताओं को जिनके भी जीवित पुत्र व पुत्रियाँ हैं। उनको पैदा करने व पालते समय ये कभी नहीं सोचे होंगे की एक दिन जब हम उनकी तरह पालने योग्य होंगे तो वे हमें बहार का रास्ता दिखा देंगे। हम माँ बाप जो बच्चों को पालते समय उनकी खुशी की खातिर अपनी सारी खुशियों को उनपर न्यौछावर कर देते हैं वही बेटे व बेटियाँ अपनी आधुनिक कही जाने वाली जिंदगी में हमें समाहित नहीं कर पाएंगे।
लेकिन कमाल की बात है वे चिल्ड्रेन डे मानते हैं लेकिन आज के ये आधुनिक बेटे जो साल में एक दिन फादर दे मनाने वाले हैं वे उनकी सुधि भी नहीं लेते। वो तो भला हो उस अंग्रेजन का जिसने १९१० में आपने पिता की याद में पहली बार फादर डे मनाया जिसे आज सारी दुनिया मनाती है, हे आधुनिक लोंगो उसने अपने पिता का जन्मदिन फादर डे के रूप में मनाया क्योंकि वे मर चुके थे। तुम उसके पिता के गम में क्यों फादर डे मानते हो, अगर अपने पिता से इतना ही प्यार है तो हर रोज उनकी देखभाल करो उनको अपने साथ रखो तो उनके लिए हर रोज फादर डे होगा।
मै किसी भी त्यौहार का विरोधी नहीं हूँ लेकिन मै उन त्योहारों को नकारता हूँ जो हमारी उज्जवल संस्कृति के खिलाफ हैं, हमारे हर रिश्ते इतने अनमोल है की उनके लिए साल में सिर्फ एक दिन मनाना उन रिस्तो को गाली देने के सामान है। यैसे में माता पिता का रिश्ता तो देव तुल्य रिश्ता है, हम ये कैसे मान सकते हैं की रोज मंदिर में जाकर भगवान की पूजा करें और घर में माँ बाप को साल में एक दिन याद के रूप में मनावें और ये सोचे की भगवान हमसे प्रसन्न होंगे। जिस तरह हम कण कण में व्याप्त भगवान को रोज मन्दिरों में पूजते है ठीक उसी तरह अपने घर में माँ बाप के रूप में मौजूद भगवान की पूजा करें, ये मदर डे व फादर डे उन अंग्रेजों को ही मनाने दें जिनके लिए ये रिश्ते साल में एक दिन का खेल हैं।
रत्नेश त्रिपाठी
लेकिन कमाल की बात है वे चिल्ड्रेन डे मानते हैं लेकिन आज के ये आधुनिक बेटे जो साल में एक दिन फादर दे मनाने वाले हैं वे उनकी सुधि भी नहीं लेते। वो तो भला हो उस अंग्रेजन का जिसने १९१० में आपने पिता की याद में पहली बार फादर डे मनाया जिसे आज सारी दुनिया मनाती है, हे आधुनिक लोंगो उसने अपने पिता का जन्मदिन फादर डे के रूप में मनाया क्योंकि वे मर चुके थे। तुम उसके पिता के गम में क्यों फादर डे मानते हो, अगर अपने पिता से इतना ही प्यार है तो हर रोज उनकी देखभाल करो उनको अपने साथ रखो तो उनके लिए हर रोज फादर डे होगा।
मै किसी भी त्यौहार का विरोधी नहीं हूँ लेकिन मै उन त्योहारों को नकारता हूँ जो हमारी उज्जवल संस्कृति के खिलाफ हैं, हमारे हर रिश्ते इतने अनमोल है की उनके लिए साल में सिर्फ एक दिन मनाना उन रिस्तो को गाली देने के सामान है। यैसे में माता पिता का रिश्ता तो देव तुल्य रिश्ता है, हम ये कैसे मान सकते हैं की रोज मंदिर में जाकर भगवान की पूजा करें और घर में माँ बाप को साल में एक दिन याद के रूप में मनावें और ये सोचे की भगवान हमसे प्रसन्न होंगे। जिस तरह हम कण कण में व्याप्त भगवान को रोज मन्दिरों में पूजते है ठीक उसी तरह अपने घर में माँ बाप के रूप में मौजूद भगवान की पूजा करें, ये मदर डे व फादर डे उन अंग्रेजों को ही मनाने दें जिनके लिए ये रिश्ते साल में एक दिन का खेल हैं।
रत्नेश त्रिपाठी
शनिवार, 9 मई 2009
हे माँ
आज मै तुम्हे याद करूँगा क्योंकि आज मदर डे है, आज मै तुमको तोहफे में कुछ दूंगा क्योकि आज मदर डे है, आज मै तुमसे समय निकाल कर मिलूँगा क्योंकि आज मदर डे है, साल में एक बार ही सही मै तुम्हारे बारे में सोचूंगा क्योंकि आज मदर डे है.
दैनिक जागरण जो भारत का अग्रणी समाचार पत्र है उसके दिल्ली संस्करण मे सम्माननीया शिल्पा शूद जी का एक लेख छपा है, मै उनकी विचारों को क्या कहूँ ये उनकी गलती नहीं है. उन्होंने लिखा है कि आपको मम्मी से कितना प्यार है? कितनी खास हैं माँ आप के लिए? मदर्स दे पर तोहफा देकर आप साबित कर सकते हैं कि माँ से बड़ा कोई नहीं,( कमाल है! अब बाजारू तोहफे माँ को माँ साबित करेंगे) उन्होंने आगे लिखा है आखिर माँ ही है जो बच्चों को खुश देखने कि खातिर सारे जतन करती है. ऐसे मे बच्चों का भी यह फर्ज बनता है कि इस तेज रफ्तार जिंदगी मे से एक दिन निकालकर उन्हें दें. शिल्पा जी ने शायद माँ को उन नेताओं कि सड़क पर लगी मूर्ति समझ लिया है जिनपर साल भर कबूतर व कौए गन्दा करते हैं और साल मे एक दिन कोई नेता उन्हें साफ करवाकर नयी माला पहनाता है और उन्हें याद करके अपना फर्ज निभाता है और फिर उसे उसके जीवन पर्यंत चलने वाले हाल पर छोड़ देता है.
क्या इतना उतावलापन किसी भारतीय के लिए माँ के प्रति साल में एक ही दिन रहता है, क्या हम माँ को साल में एक दिन याद रखने वाली मूर्ति समझते हैं कि उसे साफ किया और कुछ नये मालाओं से सजाकर फिर किसी ओट पर रख दिया कि अगले साल फिर उसे मदर डे पर उठाऊंगा और वही काम पूरा करके माँ के कर्ज को अदा कर दूंगा.
हमारी नई दुनिया में जीने वाले आधुनिक भारतीयों ये हमारी परंपरा नही है, क्योकि माँ हमारे सर्वश्व मे निवास करती है वह हमारे जीवन के हर क्षण मे हमारे साथ रहती है, पूरा जीवन हम उसकी सेवा करके भी उसके कर्ज को नही उतार पाते तो साल मे एक दिन याद करके हम क्या कर लेंगे अरे जो लोग अपनी माँ को अपने साथ नहीं रखते या भूल जाते हैं वे लोग मदर डे मनावें. हम तो भारतीय हैं हमारी तो दिन की शुरुआत ही माँ के चरणों से होती है इसीलिए हमारा हर दिन मदर डे होता है.
हमें पश्चिम से ये सीखने की नहीं बल्कि उनको ये सिखाने की जरुरत है कि हम अपने रिश्तों कि मार्केटिंग नहीं करते और न ही उनको साल मे केवल एक दिन मनाते हैं बल्कि हमारे हर रिश्ते हमारे जीवन कि अनमोल कडिया होते हैं जिनकी माला हम हर पल अपने ह्रदय से लगाये रहते हैं.
दैनिक जागरण जो भारत का अग्रणी समाचार पत्र है उसके दिल्ली संस्करण मे सम्माननीया शिल्पा शूद जी का एक लेख छपा है, मै उनकी विचारों को क्या कहूँ ये उनकी गलती नहीं है. उन्होंने लिखा है कि आपको मम्मी से कितना प्यार है? कितनी खास हैं माँ आप के लिए? मदर्स दे पर तोहफा देकर आप साबित कर सकते हैं कि माँ से बड़ा कोई नहीं,( कमाल है! अब बाजारू तोहफे माँ को माँ साबित करेंगे) उन्होंने आगे लिखा है आखिर माँ ही है जो बच्चों को खुश देखने कि खातिर सारे जतन करती है. ऐसे मे बच्चों का भी यह फर्ज बनता है कि इस तेज रफ्तार जिंदगी मे से एक दिन निकालकर उन्हें दें. शिल्पा जी ने शायद माँ को उन नेताओं कि सड़क पर लगी मूर्ति समझ लिया है जिनपर साल भर कबूतर व कौए गन्दा करते हैं और साल मे एक दिन कोई नेता उन्हें साफ करवाकर नयी माला पहनाता है और उन्हें याद करके अपना फर्ज निभाता है और फिर उसे उसके जीवन पर्यंत चलने वाले हाल पर छोड़ देता है.
क्या इतना उतावलापन किसी भारतीय के लिए माँ के प्रति साल में एक ही दिन रहता है, क्या हम माँ को साल में एक दिन याद रखने वाली मूर्ति समझते हैं कि उसे साफ किया और कुछ नये मालाओं से सजाकर फिर किसी ओट पर रख दिया कि अगले साल फिर उसे मदर डे पर उठाऊंगा और वही काम पूरा करके माँ के कर्ज को अदा कर दूंगा.
हमारी नई दुनिया में जीने वाले आधुनिक भारतीयों ये हमारी परंपरा नही है, क्योकि माँ हमारे सर्वश्व मे निवास करती है वह हमारे जीवन के हर क्षण मे हमारे साथ रहती है, पूरा जीवन हम उसकी सेवा करके भी उसके कर्ज को नही उतार पाते तो साल मे एक दिन याद करके हम क्या कर लेंगे अरे जो लोग अपनी माँ को अपने साथ नहीं रखते या भूल जाते हैं वे लोग मदर डे मनावें. हम तो भारतीय हैं हमारी तो दिन की शुरुआत ही माँ के चरणों से होती है इसीलिए हमारा हर दिन मदर डे होता है.
हमें पश्चिम से ये सीखने की नहीं बल्कि उनको ये सिखाने की जरुरत है कि हम अपने रिश्तों कि मार्केटिंग नहीं करते और न ही उनको साल मे केवल एक दिन मनाते हैं बल्कि हमारे हर रिश्ते हमारे जीवन कि अनमोल कडिया होते हैं जिनकी माला हम हर पल अपने ह्रदय से लगाये रहते हैं.
रविवार, 29 मार्च 2009
माँ की वंदना
यूँ तो माँ के विषय में लिखने के लिए एक ही जनम काफी नहीं है, लेकिन अगर कुछ लिखने को कहा जाये तो अभिव्यक्ति के लिए शब्द ही नहीं मिलते हाँ कुछ पंक्तियों से जरुर माँ के बारे में वंदना स्वरूप शब्द का वर्णन किया जा सकता है, इसी संदर्भ में कुछ पंक्तियाँ निम्न हैं ,
१. बुलंदियों का बड़े से बड़ा निशान हुआ,
उठाया गोंद में माँ ने तो आसमान छुआ,
२. जब भी कस्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ कराती हुई ख्वाब में आ जाती है.
३. घर के झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उघडते देखे,
चुपके-चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्मा .
४. बदन से तेरे आती है मुझे यै माँ वही खुशबू,
जो इक पूजा के दीपक में पिघलते घी से आती है.
५. भीड़ भरा चौरस्ता हूँ मै,
घर की एक डगर है माँ.
रहा उम्र भर एक सफ़र में,
जब भी लौटा घर है माँ.
मुझको छोड़ अकेला मेरे,
बच्चे चले गए जब से,
तेरी याद बहुत आती है,
आया तुझे छोड़कर माँ.
ये सभी पंक्तियाँ किसी न किसी ने माँ को याद करते हुए ही लिखी होगी, मतलब इससे नहीं की वो किस जाति या धर्म के हैं! बात ये है की उन सभी ने माँ को इश्वर के रूप में देखा होगा, पद्म भूषण नीरज जी ने माँ के बारे में लिखा है कि,
जिसमे खुद भगवान ने खेले खेल विचित्र,
माँ कि गोंदी से नहीं कोई तीर्थ पवित्र.
१. बुलंदियों का बड़े से बड़ा निशान हुआ,
उठाया गोंद में माँ ने तो आसमान छुआ,
२. जब भी कस्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ कराती हुई ख्वाब में आ जाती है.
३. घर के झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उघडते देखे,
चुपके-चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्मा .
४. बदन से तेरे आती है मुझे यै माँ वही खुशबू,
जो इक पूजा के दीपक में पिघलते घी से आती है.
५. भीड़ भरा चौरस्ता हूँ मै,
घर की एक डगर है माँ.
रहा उम्र भर एक सफ़र में,
जब भी लौटा घर है माँ.
मुझको छोड़ अकेला मेरे,
बच्चे चले गए जब से,
तेरी याद बहुत आती है,
आया तुझे छोड़कर माँ.
ये सभी पंक्तियाँ किसी न किसी ने माँ को याद करते हुए ही लिखी होगी, मतलब इससे नहीं की वो किस जाति या धर्म के हैं! बात ये है की उन सभी ने माँ को इश्वर के रूप में देखा होगा, पद्म भूषण नीरज जी ने माँ के बारे में लिखा है कि,
जिसमे खुद भगवान ने खेले खेल विचित्र,
माँ कि गोंदी से नहीं कोई तीर्थ पवित्र.
शुक्रवार, 27 मार्च 2009
भारतीय नववर्ष २०६६,
सभी ब्लागरवासियों को भारतीय नववर्ष २०६६, कलियुगाब्द ५०११ व नवरात्रि की अनुपम बेला पर ढेर सारी शुभकामनाएं,
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