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शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

सूखी रोटी और उम्मीद !

उम्मीदों का टूटना उनसे पूछो
जिनकी उम्मीद केवल रोटी है
वो सूखी रोटी जिसे हम कुत्तों को
खिला देते हैं या फेंक देते है गर्व से
उसी समाज में जीते कुछ लोगो को
ये भी नहीं मालुम की गर्व क्या है
उन्हें मालूम है तो बस वो सूखी रोटी
अब ऐसे में प्रेम के एहसास को क्या ढूढुं
ढूढता हूँ बस वो सपना की सबको रोटी मिले
फिर सोचूंगा उन उम्मीदों के बारे में
जिन्हें भूख नहीं लगती
जो सूखी रोटी नहीं मांगती

.....रत्नेश

2 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत ही गहरी सोच लिये आप की यह रचना, मै कई बार सोचता हुं कि इन लोगो का क्या कसूर...

kshama ने कहा…

ढूढता हूँ बस वो सपना की सबको रोटी मिले
फिर सोचूंगा उन उम्मीदों के बारे में
जिन्हें भूख नहीं लगती
जो सूखी रोटी नहीं मांगती
Bahut sanjeeda, sulajhee huee rachana!