आपका हार्दिक अभिनन्‍दन है। राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता - आए जिस-जिस में हिम्मत हो

बुधवार, 30 दिसंबर 2009

इसे पढ़े जरुर? क्योंकि मुझे अपने सवालों का जबाब चाहिए!

नव वर्ष
जहाँ तक मै जानता हूँ हम सभी इस देश से प्यार करते हैं, इससे प्यार करने का तर्क चाहे जो भी हो. खास करके इस ब्लाग कि दुनिया में रोजमर्रा हो रहे मेरे अनुभवों से भी मुझे यह स्पष्ट होता है कि हम आपस में चाहे कितनी ही बहस करें किन्तु देश पर मर मिटने वाले क्रांतिकारियों के नाम पर एकजुट दिखाई देते हैं.
हमारी सोच हर विषय पा खोजपरक होती है, अब बात असली मुद्दे की, कि क्या हमें यह अंग्रेजों का नववर्ष मनाना चाहिए?
मै किसी भी प्रकार का विरोध न करते हुए इस अंग्रेजों के नववर्ष को मनाने का कारण जाना चाहता हूँ! हम आधुनिक हो चुके लोग क्या यह नहीं जानते कि अमेरिका जैसा आधुनिक देश ने आजाद होने के बाद उस हर प्रतीक को मिटा के रख दिया जिसमे उसे गुलामी का प्रतीक नजर आया, क्या हम अमेरिका से अधिक (वर्त्तमान में) आधुनिक हैं.

* क्या हम ये नहीं जानते कि इसी अंग्रेजी विचारों और दासता से लड़ते-लड़ते हमारे देश के नौजवान से लेकर सभी उम्र के लोगों ने जान दी,

* क्या हम उनकी पुन्यतिथियाँ ही मनाने के लिए शेष हैं?
* इनको याद करते हुए हम लम्बे चौड़े भाषण झाड़ देते हैं, क्या जब हम इस दासता के प्रतीक को पैसे व शराब में डुबोकर मानते होंगे तो हमारी ख़ुशी के लिए मर मिटने वाली आत्माएं प्रशन्न होती होंगी?
* क्या हम पढ़े लिखे स्वतन्त्र लोग अपने नववर्ष को नहीं जानते जिसपर सारी प्रकृति टिकी है, और हम अपने सभी काम उसी के अनुसार करते हैं?
* क्या हम अपने भारतीय नव वर्ष को भी ऐसे ही मनाते हैं?

मै कोई बीता हुआ कल या आज के ज़माने कि भाषा में दकियानूसी नहीं हूँ, मै इस भारत का नौजवान हूँ और मुझे गर्व है कि मै उन महात्माओं, पुण्य आत्माओं का वंशज हूँ जिन्होंने मरना स्वीकार किया किन्तु दासता की किसी भी वस्तु को गले नहीं लगाया.
मुझे गर्व है क्या आपको है ?
रत्नेश त्रिपाठी

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

परतंत्रता का प्रतीक, न्यू इयर

यहाँ मै दैनिक जागरण में छपी पंजाब सरकार कि मंत्री लक्ष्मीकांत चावला का अंग्रेजियत नव वर्ष पर एक बहुत ही अच्छा आलेख आया है जिसे मै जस का तस प्रस्तुत कर रहा हूँ....
एक बार फिर अधिकांश भारतवासी, हमारी सरकार, हमारा टेलीविजन नववर्ष का स्वागत करने की तैयारी कर रहे हैं। बड़े-बड़े होटलों में हजारों रुपये प्रति व्यक्ति खर्च करके देश का कुलीन वर्ग सीटें रिजर्व करा रहा है। नववर्ष पर करोड़ों ग्रीटिंग कार्ड भेजे जा रहे हैं। तथाकथित सभ्य समाज जाम से जाम टकरा-खनका कर मदहोशी की हालत में नववर्ष की शुभकामनाएं देगा। आम आदमी भी पीछे नहीं रहेगा। आधी रात तक टीवी के सामने बैठ कर मध्य रात्रि के अंधेरे में ही नया दिन मनाएगा और कुछ मनचले सड़कों पर पटाखे छोड़कर, नशे में धुत होकर घर के दरवाजे खटखटाएंगे। आजादी के बाद हमने परतंत्रता के अनेक प्रतीक चिह्न मिटाए, विदेशियों के बुत हटाए, सड़कों के नामों का भारतीयकरण किया, पर संवत् और राष्ट्रीय कैलेंडर के विषय में हम सुविधावादी हो गए, हमें विस्मृति रोग ने जकड़ लिया। इसके लिए यह तर्क दिया जा सकता है कि अब जब संसार के अधिकतर देशों ने समान कालगणना के लिए ईसवी सन स्वीकार कर लिया है तो दुनिया के साथ चलने के लिए हमें भी इसका प्रयोग करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि हमने सुविधा को आधार बनाकर राष्ट्रीय गौरव से समझौता कर लिया है और यह भी भुला दिया कि काम चलाने और जश्न मनाने में बहुत अंतर है। दो हजार वर्ष पहले शकों ने सौराष्ट्र और पंजाब को रौंदते हुए अवंती पर आक्रमण किया तथा विजय प्राप्त की। विक्रमादित्य ने राष्ट्रीय शक्तियों को एक सूत्र में पिरोया और शक्तिशाली मोर्चा खड़ा करके ईसा पूर्व 57 में शकों पर भीषण आक्रमण कर विजय प्राप्त की। थोड़े समय में ही इन्होंने कोंकण, सौराष्ट्र, गुजरात और सिंध भाग के प्रदेशों को भी शकों से मुक्त करवा लिया। वीर विक्रमादित्य ने शकों को उनके गढ़ अरब में भी करारी मात दी। अरब विजय के उपलक्ष्य में मक्का में महाकाल भगवान शिव के मंदिर का निर्माण करवाया। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक शायर उर ओकुल मंें किया है-वे लोग धन्य हैं जो सम्राट विक्रमादित्य के समय उत्पन्न हुए। वे सज्जन, उदार एवं कर्तव्यपरायण शासक थे। इसी सम्राट विक्रमादित्य के नाम पर भारत में विक्रमी संवत प्रचलित हुआ। सम्राट पृथ्वीराज के शासनकाल तक इसी संवत के अनुसार कार्य चला। इसके बाद भारत में मुगलों के शासनकाल के दौरान सरकारी क्षेत्र में हिजरी सन चलता रहा। इसे भाग्य की विडंबना कहें अथवा स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं का अनुचित दृष्टिकोण कि सरकार ने शक संवत् को स्वीकार कर लिया, लेकिन शकों को परास्त करने वाले सम्राट विक्रमादित्य के नाम से प्रचलित संवत् को कहीं स्थान न दिया। यह सच है कि भारतवासी अपने महापुरुषों के जन्मदिन एवं त्यौहार विक्रमी संवत् की तिथियों के अनुसार ही मनाते हैं। जन्मकुंडली तथा पंचांग भी इसी आधार पर बनते हैं। उदाहरण के लिए रक्षाबंधन श्रावणी पूर्णिमा को और सर्दी का आगमन शरद पूर्णिमा को मनाते हैं। गुरुनानक देव का जन्मदिवस कार्तिक पूर्णिमा, श्रीकृष्ण का भादों की अष्टमी, श्रीरामचंद्र का चैत्र की नवमी को ही मनाया जाता है। इसी प्रकार बुद्ध पूर्णिमा, पौष सप्तमी और दीपावली के लिए कार्तिक अमावस्या सभी जानते हैं, किंतु न जाने क्यों अपनी तथा अपने बच्चों की जन्मतिथि ईसवी सन के अनुसार चलाते हैं। 31 दिसंबर की आधी रात को नववर्ष के नाम पर नाचने वाले आम जन को देखकर तो कुछ तर्क किया जा सकता है, पर भारत सरकार को क्या कहा जाए जिसका दूरदर्शन भी उसी रंग में रंगा श्लील-अश्लील कार्यक्रम प्रस्तुत करने की होड़ में लगा रहता है और राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री पूरे राष्ट्र को नववर्ष की बधाई देते हैं। भारतीय सांस्कृतिक जीवन का विक्रमी संवत् से गहरा नाता है। इस दिन लोग पूजापाठ करते हैं और तीर्थ स्थानों पर जाते हैं। लोग पवित्र नदियों में स्नान करते हैं। लोग इस दिन इन तामसी पदार्थाे से दूर रहते हैं, पर विदेशी संस्कृति के प्रतीक और गुलामी की देन विदेशी नववर्ष के आगमन से घंटों पूर्व ही मांस मदिरा का प्रयोग, श्लील-अश्लील कार्यक्रमों का रसपान तथा अन्य बहुत कुछ ऐसा प्रारंभ हो जाता है जिससे अपने देश की संस्कृति का रिश्ता नहीं है। विक्रमी संवत के स्मरण मात्र से ही विक्रमादित्य और उनके विजय अभियान की याद ताजा होती है, भारतीयों का मस्तक गर्व से ऊंचा होता है, जबकि ईसवी सन के साथ ही गुलामी द्वारा दिए गए अनेक जख्म हरे होने लगते हैं। मोरारजी देसाई को जब किसी ने पहली जनवरी को नववर्ष की बधाई दी तो उन्होंने उत्तर दिया था- किस बात की बधाई? मेरे देश और देश के सम्मान का तो इस नववर्ष से कोई संबंध नहीं। यही हम लोगों को भी समझना होगा। (लेखिका पंजाब सरकार में मंत्री हैं)

अंग्रेजियत नव वर्ष पर एक लेख मै भी लिख रहा हूँ जिसे ३० को पोस्ट करूँगा किन्तु उसके पहले इस लेख का हाल जानना है कि हमारे अन्दर कितना भारत जीवित है.
रत्नेश त्रिपाठी

रविवार, 27 दिसंबर 2009

जाड़े कि रातें

बड़े होने का दर्द आज इतना है
कि याद आती हैं वो जाड़े कि रातें

कभी रजाई तो कभी माँ का आँचल
दादी कि कहानी वाली जाड़े कि रातें

कभी सांप तो कभी भूतों वाली बातें
बड़ी डरावनी भी थी जाड़े कि रातें

जलाकर अलाव बैठती थी टोली अपनी
नयी बदमाशियां सिखाती वो जाड़े कि रातें

पढाई छोड़ रजाई कि आगोश में आते
कि कितनी गर्म होती थी जाड़े की रातें

कभी माँ कभी दादी कभी कभी दीदी कि गोंद
अब कहाँ सुकून देती हैं जाड़े कि रातें

आज जीवन कि आपाधापी में हम कुढ़ते
अब तो सोने नहीं देती जाड़े कि रातें

रत्नेश त्रिपाठी

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

अम्मा !

एक कहानी अजीब सी
बहुत सा सवाल लिए
और उत्तर केवल एक, केवल एक?
फिर वह कहानी क्या है? और
उन बहुत सारे प्रश्नों का एक उत्तर क्या है ?
कहानी है परिवार की, हमारे विचार की
आज के समाज के व्यवहार की
कोई किसी से खुश नहीं है
पति पत्नी से नाखुश, स्त्री पुरुष से नाखुश
बेटा बाप से, भाई भाई से, हर रिश्ता दूसरे से
समस्या! सिर्फ अपने बारे में सोचना
नए युग के अनुसार स्वयं के
अधिकारों पर स्वयं की जीवन इच्छा
सब अपने को सर्वश्रेष्ठ मानकर
दूसरों के प्रति लापरवाह हैं !
कारण कुछ भी हो
अहम् ब्रह्मास्मि!
सभी रिश्ते एक दूसरे के अधिकारों की होड़ में
अगड़ पिछड़ रहे हैं, सब अपने
किये की किस्त मांग रहे हैं ,
हम आधुनिकता में सबकुछ भूले बैठे
जीवन को अर्थ की कसौटी पर
व्यर्थ में तौलते जा रहे हैं,
और फिर आधुनिक युग की
अनमोल देन अधिकार व स्वयं इच्छा
का आवरण ओढ़े जा रहे हैं
ये है जीवन की कहानी , अब !
इन सबका एक उत्तर
वह कौन है? जो अधिकार नहीं मांगती
वह कौन है? जो इन्वेस्ट का फायदा नहीं मांगती
वह कौन है? जो स्वयं की इच्छा
व स्वयं ब्रह्मास्मि होते हुए
अहम् ब्रह्मास्मि नहीं कहती
वह कौन है? जो पूरी कहानी लिखती है
किन्तु पारितोषिक नहीं मांगती
वह कौन है जो सृजन की स्थली है ..
लेकिन खुद के लिए स्थान नहीं मांगती
इस कहानी और इन प्रश्नों का बस
एक जबाब है माँ -
माँ और बस माँ
रत्नेश त्रिपाठी

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

बेहयी संसद को ढोती नासमझ जनता!

यह लोकतंत्र है, तभी तो पूरा तंत्र जनता पर चढ़ा बैठा है, मै बात कर रहा हूँ महगाई की.
चाहे पूरा देश इससे तबाह हो लेकिन संसद महगाई से अछूती है, महगाई क्या होती है हमारे सांसद नहीं जानते, आइये इस सच्चाई की तह में जाएँ - आज २१-१२-२००९ के दैनिक जागरण का मेन पृष्ट की एक खबर " संसद की कैंटीन से दूर है महगाई" और इसमे दिए हुए आकडे हमारीसड चुकी व्यवस्था को समझाने के लिए पर्याप्त है, आज जब आम जनमानस इस भीषण महंगाई से जूझ रहा है जरा हम देखें हमारे देश के कर्णधार सांसदों की थाली की कीमत क्या है, आकडे कुछ इस प्रकार हैं-
दही चावल 11 रूपया
एक कटोरी दाल 1.50 ''
वेज पुलाव 8 ''
चिकन बिरयानी 34 ''
फिश कड़ी, चावल 13 ''
राजमा चावल 7 ''
चिकन कड़ी 22.50 ''
चिकन मशाला 24.50 ''
बटर चिकन 27 ''
चाय 1 ''
सूप 5.50 ''
खीर 5.50 ''
डोसा 4 ''
फ्रूट केक 9.50 ''
फ्रूट सलाद 7 ''
है न हमारी देश की संसद महगाई से दूर,
अब सोचने वाली बात ये है कि सबकुछ हमारा तो फिर यह खाना केवल वो सांसद कि क्यों खाए जो हमारी ही बदौलत वहाँ पहुचे हैं, ये तो रही सोचने वाली बात,
अब करने वाली बात ये है कि पूरी देश कि जनता इस सस्ते भोजन को क्यों न करे. इस नारे साथ हम भी आगे आयें हम क्यों महंगा खाएं
आओ चलो हम भी संसद जाएँ,
जय हो ..............
रत्नेश त्रिपाठी

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

काकोरी कांड बलिदान दिवस

आज हम सभी देशवाशी उन क्रन्तिकारी वीरों को याद करें और नमन करें जिन्होंने इस देश के लिए अपने जीवन का बलिदान किया,
१९ दिसंबर, काकोरी कांड के नायक पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां और ठाकुर रोशन सिंह जैसे वीरों के 82 वें बलिदान दिवस पर उनको हमारा शत-शत नमन, आज पूरे राष्ट्र को इन वीरों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए जिनके प्रयासों से हमें आजादी मिली. वास्तव में हमारे सच्चे नेता, हमारे सच्चे नायक यही हैं जिन्होंने अपने जीवन से अधिक अपने राष्ट्र कि स्वतंत्रता को प्यार किया और अपने जीवन का बलिदान किया.
राष्ट्र के प्रति हम अपने कर्तव्यों को समझें और इन वीरो के बलिदान को व्यर्थ न जाने दें. आईये आज हम सब मिलकर यह प्राण करें कि ---हम सुधरेंगे जग सुधरेगा,
और अंत में वही पंक्तियाँ जो इन वीरों के लिए गयी जाती हैं,

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा
वन्दे मातरम

रत्नेश त्रिपाठी

रविवार, 13 दिसंबर 2009

सपने की हकीकत

क्या होते हैं सपने?
क्यों दिखतें हैं सपने?
क्या सपने हकीकत कि परछाई हैं
या परछाईयों कि हकीकत
जिनका चोला ओढ़े हम
सपने देखते हैं, और वह
सपने ही रह जाते हैं ,
नीद टूटते ही सब कुछ खत्म
सिर्फ हकीकत और फिर भविष्य के सपने
सपने तब खतरनाक होते हैं
जब जागते हुए देखे जाते हैं
सोते हुए सपने जगने के बाद
टूट जाने पर आराम देते हैं
पर जागते सपने अक्सर
हमें तोड़ देते हैं,
फिर वही निरुत्तर प्रश्न
क्या होते हैं सपने?
फिर वही जबाब
सपने तो सपने होते हैं

रत्नेश त्रिपाठी

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

इतनी दूर तक जगने वाले

इतनी दूर तक जगने वाले
सोने कि तू बात न कर
जीवन तो एक दरिया है पर
डूबने कि तू बात न कर

माना कि गम के बादल हैं
मज़बूरी है बरस रही
एक-एक बूंद कि खातिर
सीप जीवन कि तरस रही
बस तू पर्वत सा बन जा
यूँ बहने कि बात न कर . इतनी दूर.......

सुबह तो फिर भी आती है
पर तू सुबह से पहले कि सोच
बन करके मोती तू चमक
तू सुबह का इंतजार न कर

इतनी दूर तक जगने वाले
सोने कि तू बात न कर

रत्नेश त्रिपाठी