आपका हार्दिक अभिनन्‍दन है। राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता - आए जिस-जिस में हिम्मत हो

रविवार, 30 मई 2010

रस्मे - उल्फ़त को निभाएं तो निभाएं कैसे

रस्मे - उल्फ़त को निभाएं तो निभाएं कैसे
गम के इस बाग में हम फूल खिलाएं कैसे |

फेर ली नज़रें उसने इतनी नफ़रत से
प्यार से उसको बुलाएं तो बुलाएं कैसे |

हर कदम उसकी आहटे सुनता
मुड़ के जब देखता वह नहीं होता

अब तो खामोश हो गए हैं सभी
कोई जो उसको सुनाये तो सुनाएं कैसे |

दिल कि हर बात शुरू होती है उससे ही
प्यार के दीप बुझाये तो बुझाएं कैसे |

तेरे अब चाहने वालों कि कमी भी नहीं
तेरे दिल में हम समाये तो समाएं कैसे |


रत्नेश त्रिपाठी

शनिवार, 29 मई 2010

हमारे नेता !

1
भूख बेचता हूँ मै भूख बेचता हूँ
है कोई बाकी मै खूब बेचता हूँ
कटने से पहले सुनो कौन हूँ मै
मै हूँ नेता ! जो लहू बेचता हूँ


2
देश की आन से तौबा
देश की मन से तौबा
देख ये लोग कैसे हैं
जिन्हें इमान से तौबा
ना पूछ इनको क्या कहते हैं इस जहाँ में
ये देश के नेता हैं जिनके नाम से तौबा


3
जो ले जाते हैं देश को नई राह पर
वह लोग कहे जाते हैं नेता !
पर नेता शब्द का सही अर्थ
जानते नहीं खुदगर्ज ये नेता |

रत्नेश त्रिपाठी

गुरुवार, 27 मई 2010

बुद्ध पूर्णिमा


जब अंधकार की काली छाया
मन के भूतल को तोड़ती है
समाज की बेढंग तरंगे जब
जल के रुख को मोड़ती हैं

हर रोज हमें होने का कुछ
मतलब ना समझ में आता है
एक अप्रितिम उज्जवल किरण सा
कोई हमें राह दिखाने आता है

छोड़ मायावी दुनिया को जब
देह का तात्पर्य समझ में आता है
वह निश्छल निर्मल काया
बुद्धत्व कहलाता है.


रत्नेश त्रिपाठी

शुक्रवार, 21 मई 2010

माथे की बिन्दी- हिन्दी (संविधान, संसद और हम)

एक प्रतिष्ठित पत्रिका में हिन्दी के ऊपर देश के कुछ बुद्धिजीवियों का विचार पढ़ा, आश्‍चर्य तब अधिक हुआ जब कुछ युवाओं के साथ अन्य तथाकथित बुद्धिजीवियों नें हिन्दी की जगह अंग्रेजी की पैरवी की। हम इस स्थिति के लिए दोष किसे दें। संविधान को, संसद को, सरकार को, लोक प्रशासकों को या खुद को, आइए सर्वप्रथम हम यह जाने कि इस राजभाषा का संकल्प 1968 में जो संसद की दोनो सदनों में पारित हुआ। क्या है?

राजभाषा संकल्प 1968 : संसद के दोनो सदनो द्वारा पारित निम्नलिखित सरकारी संकल्प- ”जबकि संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार संघ की राजभाषा हिन्दी रहेगी और उसके अनुच्छेद 351 के अनुसार हिन्दी भाषा का प्रचार वृद्धि करना और उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके।”

1- संघ का कर्तव्य है ”यह सभा संकल्प करती है कि हिन्दी के प्रसार एवं विकास की गति बढ़ाने हेतु तथा संघ के विभिन्न राजकीय प्रयोजनो के लिए उत्तरोत्तर इसके प्रयोग हेतु भारत सरकार द्वारा एक अधिक गहन एवं व्यापक कार्यक्रम तैयार किया जायेगा और उसे क्रियान्वित किया जायेगा, और किये जाने वाले उपायो एवं की जाने वाली प्रगति की विस्तृत वार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट संसद की दोनों सभाओं के पटल पर रखी जायेगी और सब राज्य सरकारों को भेजी जायेगी।”

2- जबकि संविधान की आठवीं अनुसूची में हिन्दी के अतिरिक्त भारत की 21 मुख्य भाषाओं का उल्लेख किया गया है, और देश की शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक उन्नति के लिए यह आव”यक है कि इन भाषाओं के पूर्ण विकास हेतु सामूहिक उपाय किये जाने चाहिए ”यह सभा संकल्प करती है कि हिन्दी के साथ-साथ इन सब भाषाओं के समन्वित विकास हेतु भारत सरकार द्वारा राज्य सरकार के सहयोग से एक कार्यक्रम तैयार किया जाएगा और उसे क्रियान्वित किया जायेगा, ताकि वे शीघ्र समृध्द हो और आधुनिक ज्ञान के संचार का प्रभावी माध्यम बने।”

3-जबकि एकता की भावना के संवर्धन तथा देश के विभिन्न भागो में जनता में संचार की सुविधा हेतु यह आव”यक है कि भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के परामर्श से तैयार किये गये त्रिभाषा सूत्र को सभी राज्यों में पूर्णत: कार्यान्वित करने के लिए प्रभावी किया जाना चाहिए ‘यह सभा संकल्प करती है कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी तथा अंग्रेजी के अतिरिक्त एक आधुनिक भाषा के, दक्षिण भारत की भाषाओ मे से किसी एक को तहरीज देते हुए, और अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषाओं एवं अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी के अध्ययन के लिए उस सूत्र के अनुसार प्रबंध किया जाना चाहिए।’

ये थी हमारी संसद की संकल्पना अब जानिए हिन्दी पर कुछ अतिविशिष्ट महानुभावों के विचार:-

•”राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है, हिन्दी भाषा का प्रश्न है, स्वराज का प्रश्न है।” – महात्मा गाँधी

• ”संस्कृत माँ, हिन्दी गृहणी और अंग्रेजी नौकरानी है।”- डॉ. फादर कामिल बुल्के

• ”मैं दुनिया की सभी भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देशमें हिन्दी की इज्जत न हो, यह हरगिज सह नही सकता।”- आचार्य विनोवा भावे

• ”इस विशाल प्रदेश के हर भाग में शिक्षित, अशिक्षित नागरिक और ग्रामीण सभी हिन्दी को समझते हैं।” – राहुल सांकृत्यायन

• ”निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।” – भारतेन्दु हरिश्चंद्र

• ”हिन्दी हमारे देश और भाषा की प्रभावशाली विरासत है।”- राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी

अब प्रश्‍न यह उठता है कि हम क्या सोचते हैं, और क्या करते हैं। क्योंकि हिन्दी के अपने हाथ व पाँव नही हैं, हम सब ही उसके अंग है, और आज उसकी यह दशा है तो इसके लिए हम ही उत्तरदायी हैं।

संसद व सांसद तो अपने संकल्प को भूल चुके हैं, लेकिन चूकिं हिन्दी हमारी मातृ से जुड़ी हुई है, इसलिए हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम इस माता का ऋण चुकाएं।

रत्नेश त्रिपाठी

बुधवार, 19 मई 2010

क्यों चाहता है वो ! हर बार ये जीवन

जीवन एक अपार सच्चाई
कुछ जुड़े हुए नए से ख्वाब
कुछ टूटे हुए खाली लम्हे

सबकुछ पाकर भी कुछ न पाया
सबकुछ खोकर भी कुछ न खोया


हर शब्द का झंकार ये जीवन
वीणा की रग का हर तार ये जीवन
कुछ बसा हुआ कुछ उजड़ा ये जीवन

हर एक साँस में बसा जीवन
हर एक साँस पर मरा जीवन
कुछ सोचते हुए कटा जीवन
कुछ रास्तों पर मिटा जीवन


समाज का आधार ये जीवन
उसी समाज का उधार ये जीवन
शायद हसीं ख्वाब ये जीवन
शायद ये उजड़ा हुआ उपवन

हर रास्ते का आधार ये जीवन
कुछ दुःख तो कुछ प्यार ये जीवन
सोचने की बात ये जीवन
खाली जजबात ये जीवन


कुछ सच की आवाज ये जीवन
झूठ का भी साज ये जीवन
राक्षस सा आकार ये जीवन
खाली-खाली संसार ये जीवन

है मुर्दों का ब्यापार ये जीवन
शायद भगवान का पुरस्कार ये जीवन
वह भी रूठा हुआ सा लग रहा है
शायद पत्थरों का बाजार ये जीवन

हर एक परग अनुमान ये जीवन
टूटते हुए ख्वाब का भान ये जीवन
सच्चाइयों का एक सार ये जीवन


शायद मनुज न समझ सका इसकी सच्चाई
क्यों चाहता है वो ! हर बार ये जीवन

रत्नेश त्रिपाठी

मंगलवार, 11 मई 2010

कलम के गद्दारों को जिन्दा गड़वा दो

मानवता की धमनी में जब
जाति धर्म का विष बहता हो
छोड़ गरीबों की चिंता
पूंजीवादी पुराण को बाचाता हो


संविधान का अम्बेडकर जब
सडकों पर जूता सिलता हो
आजादी का भगत सिंह जब
कूड़े का जूठा पत्तल चाटता हो

माथे की बिंदी हिंदी ही जब
घर की बनवासिनी सीता हो
इस शासन की कुशासन से
त्राहि त्राहि करती जनता हो


हंसों के आगे जब भारत में
बगुलों का अभिनन्दन होता
राष्ट्रभक्त पाता फाँसी
गद्दारों का वंदन होता


जब धन पशुओं के आगे
सांसद बन जाये कठपुतली
क्यों ना देश का बच्चा-बच्चा
उगले आंधी पानी और बिजली

जब कलम का पुजारी ही
शासन के टुकड़ों का भूखा हो
तब क्यों ना क्रांति की दुन्दुभी बजे
क्यों ना छंदों का एटम बम फूटे

भ्रष्टाचार भाजता लाठी
सुरषा सी बढ़ती मंहगाई
इन्कलाब की स्याही ले
क्यों ना कलम ले अंगडाई

डाकू तो डाकू होता है
दरबार बदलने से क्या होगा
जहाँ लोक ही बिकता हो
उस लोकतंत्र का क्या होगा

लाना है यदि इन्कलाब तो
कलम के गद्दारों को जिन्दा गड़वा दो
शासन परिवर्तन पीछे है
गद्दारों को फाँसी पर चढवा दो।

रत्नेश त्रिपाठी