आपका हार्दिक अभिनन्‍दन है। राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता - आए जिस-जिस में हिम्मत हो

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

एक छोटी सी !

एक छोटी सी भूल
जो भयंकर परिणाम दे
एक छोटी से बूंद
जो जीवन को थाम दे।
एक छोटी सी चिंगारी
जो महलों को अंजाम दे
एक छोटी सी चुभन
जो इंसा की जान ले
एक छोटी सी सनक
जो कितनो की मान ले
एक छोटी सी बात
जो हजारों सवाल दे
ऐसी ही छोटी -छोटी बातें
जो जीवन को संग्राम दे
ना हो किसी के साथ
ना करे कोई ऐसा
हे प्रभु ! तू हमेशा सबका साथ दे |
रत्नेश त्रिपाठी

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

जवानी !

लाशों का बवंडर भी जिन्हें रुला नहीं पाती,
धधकते सीने की आग समंदर भी बुझा नहीं पाती.
जब बदलाव के लिए ये नौजवान खड़े होते हैं ,
इनके पैरों को ये सियासत भी हिला नहीं पाती.

अदभुत अदम्य शाहस बलिदान जिसकी थाती,
अकल्पनीय सोच, मर जाने की परिपाटी .
बदल देता है राज खूनी, खून देकर जो अपनी ,
वो नौजवान है! जिसकी कर्जदार है ये माटी.

माँ के लिए प्यार, बहन की करे रक्षा
वो बाप की है लाठी, परिवार की सुरक्षा
लेकिन वो जान देता है इस मातृ भू की खातिर
वह नौजवान है और उसकी है यही इच्छा.

बादलों की गरज को सीने में दाब लेना.
बिजलियों की चमक को मुठ्ठी में बांध लेना
ना रोकना तुम रास्ता वह नौजवान है
आता है बिना अंगूठे का उसे लक्ष्य साध लेना.

बदल देना समाज को फितरत है हमारी
लड़ जाना शेरों से हिम्मत है हमारी
जो टूट चुके हैं उनकी बात क्या करना
हम नौजवान हैं हर बाजी है हमारी

एक जीरो पर खड़े नौजवान ने दुनिया को झुकाया
बदल देने को राज फिरंगी नौजवां ने खुद को मिटाया
ऐसे ही कितने नौजवानों ने जब वन्देमातरम गाया
तब जाकर इस देश ने वापस अपना गौरव पाया .

और अंत में ....
बदल जायेंगे सूरते हाल, जरा खुद को बदल कर देखो ,
झुक जायेगा खुद आसमां, नौजवां के साथ चलकर देखो.

रत्नेश त्रिपाठी

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

थू है उनपर !

माफ़ करें किन्तु यह शीर्षक उन लोगों के लिए है जो मानसिक दिवालेपन के कारण अपने एक बड़े ही संजीदा ब्लाग लेखक फिरदौस जी को अनाप सनाप लिखकर अपनी गन्दगी को फैला रहे हैं. वर्त्तमान में इस बेनामी लोगों कीबाढ़ सी आ गयी है जिनकी कोई पहचान नहीं है और गलत नामों से अपनी गन्दगी को हमारे ब्लॉगों पर उढ़ेल रहे है.

बेवकूफ किस्म के लोग जो अधजल गगरी की तरह छलक रहें है, जो ज्ञान से कोसों दूर अपनी गन्दी हो चुकी मानसिकता से समाज को दूषित कर रहे हैं, और गलत तरीके अपनाकर धमकाने की दृष्टि से टिप्पणी कर रहें है, मै उन्हें सावधान करना चाहता हूँ कि तर्क के आधार पर बात करें, और अगर यदि उनके पास सम्बंधित पोस्टों के विषय में ज्ञान का आभाव हो तो कृपया अपनी गंदगी से हमें गन्दा न करें!

मै सभी ब्लागर भाईयों से यह अपील करना चाहता हूँ कि विना पहचान वाले (जिनका लिंक ना मिलता हो और ब्लागर ना हों तथा जो ब्लाग के साथ छेड़छाड़ करते हों) उनका विरोध करें और हो सके तो उनकी टिप्पणियों को पोस्ट से निकल दें. क्योकि यह दीमक कि तरह हमें चाटने का असफल प्रयास कर रहें हैं तथा अपनी गन्दगी को हमारी पोस्टों के माध्यम से फैला रहे हैं.

फिरदौस (मेरी डायरी) जी जो एक ऐसी ब्लागर हैं कि उनकी हर पोस्ट तर्कसंगत और सत्यता पर आधारित होती है, उसका सामना करने कि बजाय कुछ खुदा किस्म (जो खुद को ही खुदा मन बैठे हैं) के लोग विना वजह परेशान कर रहे हैं. और बेनामी टिप्पणियों के माध्यम से धमकाने का भी प्रयास करते दिखाई दे रहे हैं.

उनके लिए मै इतना अवश्य कहूँगा कि!
हल्का समझते हैं लोग मुझे शांत देखकर
शायद उन्हें अंदाजा नहीं है तूफान का !
रत्नेश त्रिपाठी

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

खेल से बड़े शहीद कि शहीदों से बड़े खेल !

इस देश में जब एक खिलाडी ओलम्पिक में सोना जीतता है तो सरकार उसे 3 करोण देती है लेकिन वही जब जवान नक्सली हमले में शहीद होते हैं तो सरकार 1 लाख देती है. आगे क्या कहें.........आप ही बताएं|
रत्नेश त्रिपाठी

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

स्वर्गीय एम् ऍफ़ हुसैन बनाम कलाकार सिद्धार्थ



हमारे देश में गाय प्राचीन काल से ही पवित्र मानी जाती रही है, लेकिन आज गाय कभी कचरे के ढेर पर तो कभी तंग गलियों में भटकती नजर आती है। अपने चित्रों द डेकोरेटेड काव के माध्यम से कलाकार सिद्धार्थ ने दुनियाभर में गायों की दुर्दशा को दर्शाया है। रेलीगेयर आर्ट गैलरी में प्रदर्शित अपने चित्रों के बार में सिद्धार्थ बताते हैं कि मैंने गायों की दुर्दशा व पीड़ा को चित्रों के माध्यम से लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया है। सिद्धार्थ ने अपने चित्रों को छह अलग-अलग भागों में चित्रित किया है, जिसमें गाय की पौराणिक व लौकिक रूप भी है दर्शाया गया है।
क्या हम इस चित्रकार की स्वर्गीय (देश के लिए मर चुका व्यक्ति) एम् ऍफ़ हुसैन से तुलना कर सकते हैं. संडास को पसंद करने वाले तथाकथित बुद्दिजीवियों का तो नहीं कह सकते लेकिन मानवता के लिए काम करने वाले कभी भी गन्दी विचारधारा के आधार पर प्रसिद्धि पाने वाले एम् ऍफ़ हुसैन से इस मानवतावादी चित्रकार की तुलना पसंद नहीं करेंगे.
चित्र व समाचार के अंश दैनिक जागरण द्वारा.
रत्नेश त्रिपाठी

रविवार, 11 अप्रैल 2010

असहिष्णुता की कैंची


काफी समय से मैं नेताओं एवं वीआईपी महानुभावों से प्रश्न कर रही हूं कि आखिर क्यों वे किसी भी उद्घाटन कार्यक्रम में अथवा समारोह में जाते ही कैंची पकड़कर रिबन काटते लगते हैं। पर आज तक किसी ने भी इसका उत्तर नहीं दिया। जिस प्रकार गोरों के राज में भारत में उद्घाटन होते थे वैसे ही स्वतंत्रता के 63 वर्ष बाद भी हो रहे हैं। हैरत की बात यह है कि कोई भी अपने गृहप्रवेश या अन्य शुभ कार्य में अपने घर में कैंची से रिबन नहीं काटता। इसे अपशगुन माना जाता है। क्या यह अपशगुन खुद के लिए ही है, देश के लिए नहीं। स्वतंत्रता से पहले सारा देश एक भाषा बोलता था- अंग्रेजो भारत छोड़ो। जब साइमन कमीशन भारत आया तो पूरे देश में एक ही नारा लगा- साइमन गो बैक। तब किसी ने यह नहीं कहा था कि साइमन हिंदू का विरोधी है या मुसलमान का, साइमन देश का विरोधी था। सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह को फांसी पर चढ़ाया गया तो उसके लिए केवल पंजाब या महाराष्ट्र ने ही आंसू नहीं बहाए। वे भारत के लाल थे, इसलिए पूरा देश आंदोलित हो उठा। जलियांवाला बाग में जो खून बहा, क्या कभी किसी ने पूछा था कि वह सवर्ण हिंदू का है या अनुसूचित जाति के किसी व्यक्ति का, ब्राह्मण का या जाट का, हिंदू का या मुसलमान का? केवल भारत के बेटों ने अपना रक्त मां के लिए दिया था। स्वतंत्रता मिलते ही हमें क्या हो गया! अंग्रेजों की कैंची हमने पकड़ ली। बांटो और राज करो का फार्मूला स्वदेशियों ने अपना लिया। एक कैंची तो सरेआम चलती है और दूसरी राजनीति के नाम पर चलाई जा रही है। हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि असम में हिंदी भाषियों को काटा जाएगा। महाराष्ट्र में कुछ राजनेताओं के चेले-चपाटे उत्तर भारतीयों की टैक्सियां जलाएंगे और उन्हें पीटेंगे। कश्मीर में जो हिंसा का तांडव हुआ, वह भी तो किसी नेता की दुर्नीति की कैंची से ही हो सका था। क्या आश्चर्य नहीं होता कि एक स्वर से अंग्रेजो भारत छोड़ो कहने वाले देश में अंग्रेजों के जाने के बाद इसलिए कुछ युवकों को पीट दिया जाए कि वे रेलवे की प्रवेश परीक्षा देने के लिए दूसरे प्रांत में क्यों गए। क्या यह दर्दनाक अध्याय देश को याद नहीं कि पटियाला के एक कालेज में दूसरे प्रांतों के खिलाडि़यों को मौत की नींद सुला दिया गया, क्योंकि वे पंजाबी नहीं थे। आज स्थिति इतनी भयानक हो गई है कि एक तरफ हम अपनी सभ्यता-संस्कृति को तिलांजलि दे रहे हैं और दूसरी तरफ जात-पात और प्रांत के लिए लड़ रहे हैं। भारत मां की गोद में पैदा हुए बच्चों में यह भाव पैदा कर दिया गया कि हम अपना पानी दूसरे प्रांत को नहीं देंगे, बेशक फसलें सूखें या वे प्यासे मर जाएं। यह भी कह दिया गया कि भाषा के नाम पर इतने कट्टर हो जाओ की कोई मुंबई को बंबई कह दे तो सिर फोड़ दो और कोलकाता को कलकत्ता कहने वाले को दंडित करो। अपनी मां को कोई भारत की किसी भी भाषा में मां न कहे तो इन कैंचीवादी नेताओं को कोई अंतर नहीं पड़ता, पर ये भाषा के नाम पर दंगा करवा सकते हैं। यह इसी कैंची का परिणाम है कि कभी पंजाब के जालंधर में भारत की रेलगाड़ी जलाई जाती है, कभी बिहार में और कभी किसी अन्य प्रांत में अपनी राष्ट्रीय संपत्ति को आग के हवाले किया जाता है। भारत में पिछले तीन वर्षो में दो लाख से ज्यादा महिलाएं बलात्कार तथा अन्य अपराधों की शिकार हुई। किसी को कुछ अंतर नहीं पड़ा, पर किसी नेता अथवा नेता परिवार के सदस्य की मूर्ति थोड़ी-सी भी खंडित हो जाए तो सैकड़ों सिर तोड़े जा सकते हैं। यही कारण है कि आज शीर्ष पदों पर आसीन राजनीतिक, सामाजिक मुखिया प्रभावहीन हो गए हैं क्योंकि उनकी कथनी और करनी एक नहीं रही। आज जाति के नाम पर समाज को जिस कैंची संस्कृति के प्रभाव में ले लिया गया है, उससे तो यह आशंका पैदा हो गई है कि अब गली-मुहल्लों और पड़ोस में भी लड़ाई करवा दी जाएगी। आज लोग शराब पीने के लिए एक मेज पर जम सकते हैं, मिलकर जुआ भी खेल सकते हैं, एक साथ सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए कोई अपराध भी कर सकते हैं, लेकिन जैसे ही भाषा, जाति या क्षेत्र को मुद्दा उठता है तो एकदूसरे को फूटी आंखों नहीं देख सकते। आज भारत माता कुछ ऐसे बेटे-बेटियों की प्रतीक्षा कर रही है जो आकार संवारने के लिए तो कैंची का सहारा लें मगर साथ ही सुई-धागा तैयार रखें ताकि देश, समाज का सही स्वरूप तैयार कर सकें। (लेखक पंजाब सरकार में मंत्री हैं)

दैनिक जागरण में छपा माननीया का यह लेख देश की ऐसी तस्वीर पेश करता है जिसकी हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और हमारी तैयार हो रही पीढ़ी ने नहीं सोचा होगा।

रत्नेश त्रिपाठी

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

हे श्याम!

हे श्याम! तेरी लकुटी कमरिया कहाँ गयो हेरायो
दशा देख तू ग्वालबाल की जल में दूध मेरायो

जल में दूध मेरायो समय ये कैसो आयो
दूध दही ते छाडी दे, पनीर भी अशुद्ध बनायो

कर ये बुरे काम गर्व से खुद को ग्वाल कहायो
कहे रत्नेश हे श्याम ये वंश का बेडा पर लगायो

बेडा पर लगायो प्रश्न ये अब उठत है
हे श्याम तेरी मुरली का ये ग्वाल तो बीन बजायो

हे श्याम अब तो हो इस धरती पर अवतारो
हाथ जोड़ दीन रात बस मै प्रार्थना करता थारो

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

ढोल गवार शुद्र पशु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी

ढोल गवार शुद्र पशु नारी
सकल ताड़ना के अधिकारी
इसे
विवादित बनाने वाले तथाकथित वेवकूफ बुद्धिजीवीयों कि व्याख्या सत्य से कितनी दूर है वह इस मूल अर्थ सेस्पष्ट होता है.
यहाँ ताड़ना का अर्थ है पहचानना या परखना, तुलसीदास कहते हैं अगर हम ढोल के व्यवहार (सुर) को नहीं पहचातेतो उसे बजाते समय उसकी आवाज कर्कश होगी अतः उससे स्वभाव को जानना आवश्यक है इसी तरह गवारगवार का अर्थ किसी का मजाक उड़ना नहीं बल्कि उनसे है जो अज्ञानी हैं ) कि प्रकृति या व्यवहार को जाने बिनाउसके साथ जीवन सही से नहीं बिताया जा सकता ये उसके इसी तरह पशु के लिए भी अर्थ है, ठीक यही अर्थ नारीके परिप्रेक्ष में भी है, जब तक हम नारी के स्वभाव को नहीं पचानाते उसके साथ जीवन का निर्वाह अच्छी तरह से नहीं हो सकता.
इतने सुन्दर और ज्ञान रूपी इस रचना को विवादित बनना कितना बड़ा दिवालियापन है यह आसानी से समझा जासकता है . यहाँ जो ताड़ना का अर्थ पीटने या मारने का लगाया जाता है वह नितांत ही गलत है,
और सबसे बड़ी बात तुलसीदास जैसे रचनाकार को समझे बिना उनपर अनाप सनाप टिप्पड़ी देना कितना उचित हैयह समझ से परे है, इस महाकाव्य कि रचना में उनके जीवन भर कि तपस्या लगी होगी जिसका हम बिना समयलगाये कुछ बेवकूफ बुद्धिजीवियों का हवाला देकर आलोचना कर देते हैं. हम पढ़े लिखे लोगों में खोजने कि प्रवृत्तिकम और बिना सोचे समझे नक़ल करने कि प्रवृत्ति ने ही अर्थ को अनर्थ किया हुआ है. जिसका खामियाजा हमारीसनातन संस्कृति को भुगतना पड़ रहा है. और मजेदार बात तो यह है कि श्री राम के अस्तित्व को ही नकार देनेवाले तथाकथित स्यमभू देवता ही इन अनर्गल आरोपों कि झड़ी लगा रहे हैं, यैसे में एक कहानी याद आती है कि.
एक बार सोने ने लोहे से कहा कि चोट तो हम दोनों को लगती है लेकिन आवाज तुम अधिक करती हो, इसकाकारण क्या है ? इसपर लोहे ने कहा तुम दूसरे के द्वारा चोट खाती हो इसलिए दर्द कम होता है लेकिन मुझे पीटनेवाला लोहा ही होता है अतः अपने से मार खाने में दर्द अधिक होता है इसलिए मेरी कराह अधिक तेज आवाजकरती है .
ठीक यही हाल हमारा और हमारे भारतीय संस्कृति का हो गया है, समय रहते यदि हमने अपने अस्तित्व कीसच्चाई को नहीं पहचाना तो डायनासोरों कि तरह हम आपस में लड़कर ही अस्तित्वविहीन हो जायेंगे.
रत्नेश त्रिपाठी