आपका हार्दिक अभिनन्‍दन है। राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता - आए जिस-जिस में हिम्मत हो

बुधवार, 18 नवंबर 2009

मै चाहता हूँ!

मै चाहता हूँ गजलों का कारवां बना दूँ ,
लेकिन कोई तो हो जो नग्मे निगार हो.

टूटते पत्तों से भी जी जाते हैं कितने ,
बस आस इतनी कि आने वाली बहार हो.

उसकी बात, उसका पता हो न हो,
लेकिन वो है! बस इतना ही ऐतबार हो.

प्यार कि बात पे नफ़रत उगल देते हैं लोग
लेकिन कोई नहीं है जिसको न प्यार हो.

मै चाहता हूँ प्यार से जोड़ना हर-एक को,
तोड़ नफरतों को चल पड़े ऐसी बयार हो.

रत्नेश त्रिपाठी

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

जिद!

यह हार एक विराम है,
जीवन महा संग्राम है
तिल-तिल मिटूंगा
पर दया कि भीख मै लूँगा नहीं,
वरदान मागूँगा नहीं-वरदान मागूँगा नहीं.

स्मृति सुखंद प्रहरों के लिए
अपने खंडहरों के लिए
यह जान लो मै विश्व की
संपत्ति चाहूँगा नहीं
वरदान मागूँगा नहीं-वरदान मागूँगा नहीं

क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मै
संघर्ष पथ पर जो मिले
यह भी सही वह भी सही
वरदान मागूँगा नहीं-वरदान मागूँगा नहीं

लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने ह्रदय की वेदना मै
व्यर्थ त्यागूँगा नहीं
वरदान मागूँगा नहीं-वरदान मागूँगा नहीं

चाहे ह्रदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्त्तव्य पथ से
किन्तु भागूँगा नहीं
वरदान मागूँगा नहीं-वरदान मागूँगा नहीं

आज जब मधु कोडा जैसे नेताओं की निंदा हम करते हैं तो कही न कहीं हम अपनी भी निंदा करते है, क्योकि आज जो उसने या उसके जैसे लोगों ने किया है तो उसके लिए हम भी कम जिम्मेदार नहीं हैं, और केवल निंदा करके हम अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकते. ये जो ऊपर शिव मंगल सिंह "सुमन" की पक्तियां लिखी हैं अगर हम इसे अपनाने की कोशिश करें तो शायद ...............

रत्नेश त्रिपाठी

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

खूनी हस्ताक्षर !

वह खून कहो किस मतलब का
जिसमे उबाल का नाम नहीं
वह खून कहो किस मतलब का
aa सके देश के काम नहीं
वह खून कहो किस मतलब का
जिसमे जीवन न खानी है
जो परवश होकर बहता है
वह खून नहीं वो पानी है
उस दिन लोगों ने सही-सही
खून कि कीमत पहचानी थी
जिस दिन सुभाष ने वर्मा में
मांगी उनसे कुर्बानी थी
बोल स्वतंत्रता की खातिर
बलिदान तुम्हे करना होगा
तुम बहुत जी चुके हो जग में
लेकिन आगे मरना होगा
आजादी के चरणों में जो
जयमाल चढाई जायेगी
वह सुनो, तुम्हारे शीशों
फूलों से गूंथी जायेगी
आजादी का संग्राम कहीं
पैसे पर खेला जाता है
यह शीश कटाने का सौदा
नंगे सर झेला जाता है
आजादी का इतिहास कहीं
काली स्याही लिख पाती है
इसको लिखने के लिए
खून की नदी बहाई जाती है
यूँ कहते-कहते वक्ता की
आँखों में खून उतर आया
मुख रक्त वर्ण हो दमक उठा
दमकी उसकी रक्तिम काया
आजानु बहु ऊँची करके
वे बोले "रक्त मुझे देना"
इसके बदले में भारत की
आजादी तुम मुझसे लेना
हो गयी सभा में उथल-पुथल
सीने में दिल न समाते थे
स्वर इन्कलाब के नारों के
कोसों तक छाये जाते थे
हम देंगे- देंगे खून
शब्द बस यही सुनाई देते थे
रण में जाने को युवक खड़े
तैयार दिखाई देते थे
बोले सुभाष "इस तरह नहीं"
बातों से मतलब सस्ता है
लो यह कागज है कौन यहाँ
आकर हस्ताक्षर करता है
इसको भरने वाले जन को
सर्वश्व समर्पण करना है
अपना तन-मन-धन-जीवन
माता को अर्पण करना है
पर यह साधारण पत्र नहीं
आजादी का परवाना है
इसपर तुमको अपने तन का
कुछ उज्जवल रक्त गिराना है
वह आगे आये जिसके तन में
भारतीय खून बहता हो
वह आगे आये जो अपने को
हिन्दुस्तानी कहता हो
< वह आगे आये जो इसपर
खूनी हस्ताक्षर देता हो
मै कफ़न बढ़ाता हूँ आये
जो इसको हँसकर लेता है
सारी जानता हुँकार उठी
हम आते हैं "हम आते हैं"
माता के चरणों में यह लो
हम अपना रक्त चढाते हैं
साहस से बढे युवक उस दिन
देखा, बढ़ते ही आते थे
चाकूं- छुरी, कटारियों से
वे अपना रक्त चढाते थे
फिर उसी रक्त की स्याही में
वे अपनी कलम डुबोते थे
आजादी के परवाने पर
हस्ताक्षर करते जाते थे
उस दिन तारों ने देखा
हिन्दुस्तानी विश्वास नया
जब लिखा महारणवीरों ने
खून से अपना इतिहास नया

आज जब इस देश में भाषा, प्रान्त, धर्म व जाति के नाम पर विद्वेष की राजनीति की जा रही है और इसमे आम जानता भी कहीं न कहीं शामिल हो रही है तो यैसे में गोपाल प्रसाद व्यास की ये पंक्तियाँ बहुत याद आती हैं!

रत्नेश त्रिपाठी

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

याद आता है!

याद आता है बहुत बचपन सुहाना,
रोज बागीचे में जाने का बहाना,
प्राइमरी स्कुल में मास्टर की छड़ी
रोते बिलखते माँ के आँचल में छुप जाना
याद है अब भी वो जूठे टिकोरे
मीठा कहके औरों को जूठा खिलाना
याद है तालाब से सीपी पकड़ना
और फिर पत्थर पे उसको रगड़ना
याद है वो प्याज और मिर्चे का मिलन
सीपियों से छीलकर टिकोरे संग खाना
हम नहीं भूले वो आम के पत्ते
तोड़कर नाचती हुई पंखी बनाना
हम नहीं भूले वो जाड़े की रातें
माँ का गोंदी में उठाकर खाना खिलाना
याद है इतना की भूलते ही नहीं
काश फिर मिल जाये वो बचपन सुहाना


रत्नेश त्रिपाठी