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सोमवार, 7 मार्च 2011

बुमन डे का क्या औचित्य है ?



मेरे विचार से इस डे की जरुरत ही नहीं है ...हम पढ़े लिखे लोग इन्ही जबजस्ती के दिनों के नाम पर ...देश का करोणों रूपया फूक देते हैं और होता क्या है सिर्फ विचार ..जो अगले ही पल बदल जाता है .....हमें जरुरत इस डे की नहीं ..हमें जरुरत अपने पारिवारिक संस्कारों को पुनर्जीवित करने की है ..जिसमे एक बच्चा वयस्क होने तक नारी के विभिन्न रूपों का दर्शन करता है ..और उन संस्कारों से परिवार और समाज दोनों का भला होता है ....आज का तथाकथित आधुनिक समाज में सबसे बड़ी कमी इन्ही पारिवारिक संस्कारों की है | जहाँ हर हर वस्तु भोग से जुड़ती जा रही है ..और उस वस्तु में नारी भी जोड़ दी गयी है |
एक घटना का मै वर्णन करता हूँ ...पिछले जाड़े में मै नॅशनल म्यूजियम में क्लास करने जा रहा था ..मेरी बस जैसे ही झंडेवाला से रामकृष्ण आश्रम पहुची वहां दो युवतियां बस में चढ़ीं लेकिन फिर उतर गयीं .साथ में तीन युवक बैठे थे देखने में काफी टिप-टाप थे.. उन्होंने इसपर व्यंग मारा की ..अरे आ के बैठ गयी होती तो कम से कम शरीर में गर्मी आ जाती ..और भी बहुत कुछ जिसे मै लिख नहीं सकता खैर !
क्या इस तरह के डे इन युवको के सोच को बदल सकते हैं ...अगर हाँ तो खूब मनाईये ...लेकिन वास्तविकता ये नहीं है ..संक्षिप्त में इतना ही कहना है की समाज को कोई भी सोच दंड या पैसे की बर्बादी करने वाले इन डे से नहीं बदली जा सकती ..उसे सिर्फ संस्कारों से बदला जा सकता है ...और यही संस्कार हमें बताते हैं की ."नारी है अपराजिता "
रत्नेश त्रिपाठी .