रस्मे - उल्फ़त को निभाएं तो निभाएं कैसे
गम के इस बाग में हम फूल खिलाएं कैसे |
फेर ली नज़रें उसने इतनी नफ़रत से
प्यार से उसको बुलाएं तो बुलाएं कैसे |
हर कदम उसकी आहटे सुनता
मुड़ के जब देखता वह नहीं होता
अब तो खामोश हो गए हैं सभी
कोई जो उसको सुनाये तो सुनाएं कैसे |
दिल कि हर बात शुरू होती है उससे ही
प्यार के दीप बुझाये तो बुझाएं कैसे |
तेरे अब चाहने वालों कि कमी भी नहीं
तेरे दिल में हम समाये तो समाएं कैसे |
रत्नेश त्रिपाठी
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13 टिप्पणियां:
काबिल-ए-तारीफ
gazab...
gazab...
खूब लिखा है ..तीसरा शेर कुछ अधुरा सा ...पर अच्छा है ...
waqy me bahut khub
Kya likhun,samajh nahi paa rahi..zindgee ke kasak bhare mod is rachna me maujood hain..
रस्मे - उल्फ़त को निभाएं तो निभाएं कैसे
गम के इस बाग में हम फूल खिलाएं कैसे ......bahut khub, kaabile tarif.
बहुत सुंदर जी. धन्यवाद
राजेंद्र जी !
बस लिख दिया मन की| हाँ! थोडा तकनीक में कमी हो सकती है, लेकिन फिर आप लोग किस लिए हैं ?
रत्नेश
आईये, मन की शांति का उपाय धारण करें!
आचार्य जी
BAHUT ACCHHI KABITA HAI.
DHANYABAD.
तेरे अब चाहने वालों कि कमी भी नहीं
तेरे दिल में हम समाये तो समाएं कैसे
उनके दिल में समाने के लिए ... उनके दिल जीतिया .. फिर जितने लोग भी पास खड़े हों ... सब को भूल देंगे वो .... अच्छा लिखा है ...
नाशवा जी
इस सुझाव के लिए धन्यवाद !
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