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रविवार, 27 दिसंबर 2009

जाड़े कि रातें

बड़े होने का दर्द आज इतना है
कि याद आती हैं वो जाड़े कि रातें

कभी रजाई तो कभी माँ का आँचल
दादी कि कहानी वाली जाड़े कि रातें

कभी सांप तो कभी भूतों वाली बातें
बड़ी डरावनी भी थी जाड़े कि रातें

जलाकर अलाव बैठती थी टोली अपनी
नयी बदमाशियां सिखाती वो जाड़े कि रातें

पढाई छोड़ रजाई कि आगोश में आते
कि कितनी गर्म होती थी जाड़े की रातें

कभी माँ कभी दादी कभी कभी दीदी कि गोंद
अब कहाँ सुकून देती हैं जाड़े कि रातें

आज जीवन कि आपाधापी में हम कुढ़ते
अब तो सोने नहीं देती जाड़े कि रातें

रत्नेश त्रिपाठी

4 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

कभी रजाई तो कभी माँ का आँचल
दादी कि कहानी वाली जाड़े कि रातें

कभी सांप तो कभी भूतों वाली बातें
बड़ी डरावनी भी थी जाड़े कि रातें

कभी पकोडे कभी गर्म गर्म चाय .........
कुछ और ही लुत्फ़ देती हैं ये जाड़ों की रातें .....
बहुत ही लाजवाब रचना है .......

राज भाटिय़ा ने कहा…

कभी रजाई तो कभी माँ का आँचल
दादी कि कहानी वाली जाड़े कि रातें

कभी सांप तो कभी भूतों वाली बातें
बड़ी डरावनी भी थी जाड़े कि रातें
बहुत सुंदर आप ने फ़िर से बचपन को याद दिला दिया

Udan Tashtari ने कहा…

सच में....



उम्दा भाव हैं.

अनिल कान्त ने कहा…

बेहद खूबसूरत रचना