बड़े होने का दर्द आज इतना है
कि याद आती हैं वो जाड़े कि रातें
कभी रजाई तो कभी माँ का आँचल
दादी कि कहानी वाली जाड़े कि रातें
कभी सांप तो कभी भूतों वाली बातें
बड़ी डरावनी भी थी जाड़े कि रातें
जलाकर अलाव बैठती थी टोली अपनी
नयी बदमाशियां सिखाती वो जाड़े कि रातें
पढाई छोड़ रजाई कि आगोश में आते
कि कितनी गर्म होती थी जाड़े की रातें
कभी माँ कभी दादी कभी कभी दीदी कि गोंद
अब कहाँ सुकून देती हैं जाड़े कि रातें
आज जीवन कि आपाधापी में हम कुढ़ते
अब तो सोने नहीं देती जाड़े कि रातें
रत्नेश त्रिपाठी
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4 टिप्पणियां:
कभी रजाई तो कभी माँ का आँचल
दादी कि कहानी वाली जाड़े कि रातें
कभी सांप तो कभी भूतों वाली बातें
बड़ी डरावनी भी थी जाड़े कि रातें
कभी पकोडे कभी गर्म गर्म चाय .........
कुछ और ही लुत्फ़ देती हैं ये जाड़ों की रातें .....
बहुत ही लाजवाब रचना है .......
कभी रजाई तो कभी माँ का आँचल
दादी कि कहानी वाली जाड़े कि रातें
कभी सांप तो कभी भूतों वाली बातें
बड़ी डरावनी भी थी जाड़े कि रातें
बहुत सुंदर आप ने फ़िर से बचपन को याद दिला दिया
सच में....
उम्दा भाव हैं.
बेहद खूबसूरत रचना
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