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रविवार, 11 अप्रैल 2010

असहिष्णुता की कैंची


काफी समय से मैं नेताओं एवं वीआईपी महानुभावों से प्रश्न कर रही हूं कि आखिर क्यों वे किसी भी उद्घाटन कार्यक्रम में अथवा समारोह में जाते ही कैंची पकड़कर रिबन काटते लगते हैं। पर आज तक किसी ने भी इसका उत्तर नहीं दिया। जिस प्रकार गोरों के राज में भारत में उद्घाटन होते थे वैसे ही स्वतंत्रता के 63 वर्ष बाद भी हो रहे हैं। हैरत की बात यह है कि कोई भी अपने गृहप्रवेश या अन्य शुभ कार्य में अपने घर में कैंची से रिबन नहीं काटता। इसे अपशगुन माना जाता है। क्या यह अपशगुन खुद के लिए ही है, देश के लिए नहीं। स्वतंत्रता से पहले सारा देश एक भाषा बोलता था- अंग्रेजो भारत छोड़ो। जब साइमन कमीशन भारत आया तो पूरे देश में एक ही नारा लगा- साइमन गो बैक। तब किसी ने यह नहीं कहा था कि साइमन हिंदू का विरोधी है या मुसलमान का, साइमन देश का विरोधी था। सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह को फांसी पर चढ़ाया गया तो उसके लिए केवल पंजाब या महाराष्ट्र ने ही आंसू नहीं बहाए। वे भारत के लाल थे, इसलिए पूरा देश आंदोलित हो उठा। जलियांवाला बाग में जो खून बहा, क्या कभी किसी ने पूछा था कि वह सवर्ण हिंदू का है या अनुसूचित जाति के किसी व्यक्ति का, ब्राह्मण का या जाट का, हिंदू का या मुसलमान का? केवल भारत के बेटों ने अपना रक्त मां के लिए दिया था। स्वतंत्रता मिलते ही हमें क्या हो गया! अंग्रेजों की कैंची हमने पकड़ ली। बांटो और राज करो का फार्मूला स्वदेशियों ने अपना लिया। एक कैंची तो सरेआम चलती है और दूसरी राजनीति के नाम पर चलाई जा रही है। हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि असम में हिंदी भाषियों को काटा जाएगा। महाराष्ट्र में कुछ राजनेताओं के चेले-चपाटे उत्तर भारतीयों की टैक्सियां जलाएंगे और उन्हें पीटेंगे। कश्मीर में जो हिंसा का तांडव हुआ, वह भी तो किसी नेता की दुर्नीति की कैंची से ही हो सका था। क्या आश्चर्य नहीं होता कि एक स्वर से अंग्रेजो भारत छोड़ो कहने वाले देश में अंग्रेजों के जाने के बाद इसलिए कुछ युवकों को पीट दिया जाए कि वे रेलवे की प्रवेश परीक्षा देने के लिए दूसरे प्रांत में क्यों गए। क्या यह दर्दनाक अध्याय देश को याद नहीं कि पटियाला के एक कालेज में दूसरे प्रांतों के खिलाडि़यों को मौत की नींद सुला दिया गया, क्योंकि वे पंजाबी नहीं थे। आज स्थिति इतनी भयानक हो गई है कि एक तरफ हम अपनी सभ्यता-संस्कृति को तिलांजलि दे रहे हैं और दूसरी तरफ जात-पात और प्रांत के लिए लड़ रहे हैं। भारत मां की गोद में पैदा हुए बच्चों में यह भाव पैदा कर दिया गया कि हम अपना पानी दूसरे प्रांत को नहीं देंगे, बेशक फसलें सूखें या वे प्यासे मर जाएं। यह भी कह दिया गया कि भाषा के नाम पर इतने कट्टर हो जाओ की कोई मुंबई को बंबई कह दे तो सिर फोड़ दो और कोलकाता को कलकत्ता कहने वाले को दंडित करो। अपनी मां को कोई भारत की किसी भी भाषा में मां न कहे तो इन कैंचीवादी नेताओं को कोई अंतर नहीं पड़ता, पर ये भाषा के नाम पर दंगा करवा सकते हैं। यह इसी कैंची का परिणाम है कि कभी पंजाब के जालंधर में भारत की रेलगाड़ी जलाई जाती है, कभी बिहार में और कभी किसी अन्य प्रांत में अपनी राष्ट्रीय संपत्ति को आग के हवाले किया जाता है। भारत में पिछले तीन वर्षो में दो लाख से ज्यादा महिलाएं बलात्कार तथा अन्य अपराधों की शिकार हुई। किसी को कुछ अंतर नहीं पड़ा, पर किसी नेता अथवा नेता परिवार के सदस्य की मूर्ति थोड़ी-सी भी खंडित हो जाए तो सैकड़ों सिर तोड़े जा सकते हैं। यही कारण है कि आज शीर्ष पदों पर आसीन राजनीतिक, सामाजिक मुखिया प्रभावहीन हो गए हैं क्योंकि उनकी कथनी और करनी एक नहीं रही। आज जाति के नाम पर समाज को जिस कैंची संस्कृति के प्रभाव में ले लिया गया है, उससे तो यह आशंका पैदा हो गई है कि अब गली-मुहल्लों और पड़ोस में भी लड़ाई करवा दी जाएगी। आज लोग शराब पीने के लिए एक मेज पर जम सकते हैं, मिलकर जुआ भी खेल सकते हैं, एक साथ सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए कोई अपराध भी कर सकते हैं, लेकिन जैसे ही भाषा, जाति या क्षेत्र को मुद्दा उठता है तो एकदूसरे को फूटी आंखों नहीं देख सकते। आज भारत माता कुछ ऐसे बेटे-बेटियों की प्रतीक्षा कर रही है जो आकार संवारने के लिए तो कैंची का सहारा लें मगर साथ ही सुई-धागा तैयार रखें ताकि देश, समाज का सही स्वरूप तैयार कर सकें। (लेखक पंजाब सरकार में मंत्री हैं)

दैनिक जागरण में छपा माननीया का यह लेख देश की ऐसी तस्वीर पेश करता है जिसकी हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और हमारी तैयार हो रही पीढ़ी ने नहीं सोचा होगा।

रत्नेश त्रिपाठी

5 टिप्‍पणियां:

kunwarji's ने कहा…

"आज भारत माता कुछ ऐसे बेटे-बेटियों की प्रतीक्षा कर रही है जो आकार संवारने के लिए तो कैंची का सहारा लें मगर साथ ही सुई-धागा तैयार रखें ताकि देश, समाज का सही स्वरूप तैयार कर सकें।"

ek bahut badhiya lekh hum tak pahunchaane ke liye aapka dhanyawaad hai ji.....

kunwar ji,

Unknown ने कहा…

"...आज लोग शराब पीने के लिए एक मेज पर जम सकते हैं, मिलकर जुआ भी खेल सकते हैं, एक साथ सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए कोई अपराध भी कर सकते हैं, लेकिन जैसे ही भाषा, जाति या क्षेत्र को मुद्दा उठता है तो एकदूसरे को फूटी आंखों नहीं देख सकते..."...

बहुत उम्दा बात कही है… सामाजिकता समाप्त होती जा रही है और असहिष्णुता-जलन की भावना बढ़ती जा रही है…

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुत सार्थक लिखा है ... सच है अँग्रेज़ भारत से चले ज़रूर गये हैं पर उनके नियम, कायदे इन नये हुक्मकारों ने अपना लिए हैं .... आधे से ज़्यादा क़ानून आज भी वो ही हैं जो अँग्रेज़ों के ज़माने से हैं ... राजाओं से गद्दी अंगेज़ों ने छीनी ... अँग्रेज़ों के बाद नेताओं ने ... कुछ ज़्यादा फ़र्क नही आया ... सिवाए इतना की नेता बदलते रहते हैं ... पर परिपाटी नही बदलती ...

Unknown ने कहा…

आपसे पूरी तरह सहमत

सूबेदार ने कहा…

Priya Rarnesh ji jai shri Ram
pahale gore angrejo ka shasan tha ab kale angrejo ka shasan hai .inse bahut ummid nahi karni chahiye .
Samaj ko khada karna padega .samaj khada hoga to rashtra khada hoga.yahi ek samadhan hai.